Monday, 24 December 2018

आखिर विफल क्यो होती हैं, नदियों को साफ करने वाली परियोजनाएं

किसी भी नीति के निर्माण के पीछे एक साकारात्मक और स्वच्छ नियत बहुत जरूरी है। जब भी कोई नीति बनाई जाती है तो उसके कारणों और सभी समुचित समाधानों का ध्यान रखते हुए काम-काज की रणनीति तैयार की जाती है। जो गत समय स्थिति होती है उस पर विचार करते हुए ऐसी स्थिति क्यों हुई उस पर भी गौर किया जाता है, साथ ही भविष्य में एक तस्वीर तैयार की जाती है कि यदि इस पर काम नहीं किया गया तो आगामी वर्षों में इसका कितना भयानक या गंभीर प्रणाम हो सकता है। ऐसे ही कुछ मामले न केवल राष्ट्र स्तर पर बल्कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय है और अलग-अलग संगठ उस पर करोड़ों-अरबों के बजट के पक्ष में भी ताकि भविष्य की तस्वीर साफ की जा सकते और हमारे आने वाले संकटों से निपटा जा सके। 
भारत में बढ़ती जनसंख्या के साथ बहुत सी ऐसी चुनौतियां है, जो कि समय के साथ बढ़ती ही जा रही हैं। उस पर ध्यान समय से पहले देने की आवश्यकता हैं जैसे की दो साल पहले शुरू की गई ''नमामी गंगे'' परियोजना जिसमें लगभग 2400 करोड़ की लागत से गंगा को साफ करने की मंशा से शुरू किया गया। साथ ही यह भी कहा गया की आगामी पांच वर्षोंं में इसके बजट की बढ़ौती की जाएंगी ताकी गंगा को साफ किया जा सके, जिसके लिए सरकार ने पिछले साल 20 हजार करोड़ रूपये की लागत से साफ करने की नियत से इसे बड़े ही जोर शोर से राशि प्रदान करने की बात की ताकि हिंदुओं की मां कहे जाने वाली नदी ''गंगा'' का दामन कई हजार करोड़ों में धुला जा सके। साथ ही इस परियोजना के माध्यम से वन लगाने, जैव विविधता को बनाएं रखने के लिए जैव विविधता केंद्र और उनके संरक्षण के लिए कार्य करने वाली टीम के निर्माण की भी बात कही गई। लगभग 120 ऐसे शहरों को भी चयनित किया गया जिसमें घरों, फेक्ट्रियों, नालों आदि से निकले वाली गंदगी को साफ किया जा सके। गंदे पानी को ट्रीटमेंट देकर साफ किया जा सके। कोई व्यक्ति नदी में कचरा न डाले इसके लिए ''रियल टाइम मॉनिटरिंग''' जैसे टीम की व्यवस्था की गई ताकि गंदगी फैलाने वालों लोगों पर निगरानी रखी जा सके। यह सब बड़े स्तर पर किया जाएगा, जहां-जहां से नदी निकल रही है उस पर नज़र रखी जाएगी। जिसमें बहुत बड़ी राशी खर्च होने का अनुमान है तथा हर साल उसे बनाएं रखने के लिए कई हजार करोड़ रूपये खर्च करने की केंद्र सरकार की परियोजना है। 
गूगल की सहायता से फोटो प्राप्त की गई है।  फोटो-1
यदि इसका इतिहास देखे तो सन् 1985 से चल रहे गंगा साफ करने के कार्य पर लगभग 4000 करोड़ रूपये खर्च हो चुके है। अलगे तीन सालों में और अधिक बजट बढ़ाने की परियोजना है। यदि बड़े संदर्भ में देखे तो साफ पानी, हवा और स्वच्छ वातावरण बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। इसका बड़ा कारण केवल यह नहीं है कि सरकारें काम नहीं कर रही है बल्कि कमी इस बात की है कि काम नियोजित तरीके से नहीं किया जा रहा है। सरकारी परियोजनाओं का बटवारा हकीकत में सही परियोजनाओं में न लगना या कम लगना है। सरकार के सामने कुछ बड़ी समस्याएं हैं जैसे जनसंख्या, इसका नियोजन और सुविधाओं का आवंटन लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं है कि सरकारों को कड़े फैसले लेने होंगे। पर्यावरण, पानी , हवा सब की है इस को गंदा करने के लिए किसी भी उद्योग को खुला नही छोड़ा जाना चाहिए कुछ नियंत्रण- नियोजन के साथ जरूरी है। जो कि किसी भी सरकार को निजी हित को अलग हट कर लेने होगे। पानी, पर्यावरण और हवा को स्वच्छ बनाने के लिए भी कानूून बनाने होंगे। प्लास्टिक, बीड़ि, तम्बाकू, निजी यातायात पर भी नियंत्रण जरूरी है। तभी स्थित साफ हो सकेंगी। हर एक शहर प्लास्टिक और पालीबेग के प्रयोग के  कारण प्रदुषित हो रहे है इन्हें तत्काल प्रतिबंधित किए जाने की आवश्यकता है।
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नदीं को साफ नियती से नहीं नियंत्रण से साफ कराना होगा। जिसके लिए नागरिकों को भी आगे आने का आवश्यकता है ताकि काम आसानी से हो सके। पर्यावरण को हरा भरा बनाएं रखने के लिए सरकारों को मुक्त में पैध शाला निर्माण की जरूरत है, जिसपर सरकारें बहुत ही लचर काम कर रही हैं। सभी को पता है कि पर्यावरण ही हमारी धरोहर है हम उसे से जीते है, जानकर भी हम खुद उसे खत्म कर रहे है जिसके बिना एक दिन हम ही स्वत: ही खत्म हो जाएंगे। जागरूकता फैलाने से भारत जैसे देश में काम नहीं होगा। हर संभव कानून बनाने होंगे और अच्छा काम करने वालों को प्रोत्साहन करने की भी आवश्यकता है।    

Sunday, 23 December 2018

फसल बौता किसान है, लेकिन उसे काटते पूंजीपति है

देश के सात दश्कों बाद भी किसान बदहाल स्थिति में है। किसान की आर्थिक स्थिति आज भी नहीं सुधरी है, आंकड़े कुछ भी कहे, पक्के मकान कितने भी बन जाए, किसान के घर में ट्रेक्टर, कार देख अमुमन यही अनुमान लगाया जाता है कि किसान को अच्छी खासी रकम मिल रही है, लेकिन हकीकत कुछ ओर  ही है, जिसके केवल किसान और नीति निर्मात ही जान सकते है। कई ऐसी फसले है जिन्हें  किसान ऊगाना नहीं चाहता लेकिन किसान के फसल चक्र या यू कहे की मजबूरी में किसान उन फसलों को उगाता है। साथ ही अपनी जीविका के लिए बाजार पर निर्भर रहता है, यदि बाजार में भाव अच्छे मिल गए तो अच्छी बात, नहीं तो कई बार ऐसा भी होता है कि उसकी लागत भी नही मिल पाती है। ऐसे में मौसमी सब्जी उगाने वाले किसानों पर संकट अधिक रहता है। साथ ही कैश क्रोप उगाने वाले किसानों की भी चुनौती कम नहीं है , यदि गन्ना, कपास और तिलहन जैसी फसलों को उचित दाम समय पर नहीं मिल पाता है। साथ ही कुछ ऐसी फसले भी हैं जिनके आधार मूल्य सरकारों ने सुनिश्चित किए जुए है लेकिन जब किसान अधिकता में कोई भी फसल लेकर जाता है तो ऐसे में सरकारी गल्ले भी हाथ उठा देते है ऐसे में किसाने के पास केवल प्राइवेट बाजार ही बचता है जोकि प्रतिस्पर्धा का शिकार है जिसमें लगभग आधे दाम पर पक्की फसले बिकती हैं। मुझे याद है कि मेरा परिवार आलू की खेती बड़े पैमाने पर किया करते थे, खुद की आढ़त, मशीन, ट्रेक्टर और  स्वंय की सिचांई व्यवस्था होने बाद जब आलू की फसल तैयार होती थी तो वह लगभग एक ट्राली 8000 रूपये के आसपास जाती थी। जिसमें दैनिक 50 लोगों की मजदूरी, आढ़त का खर्च, मंड़ी का शुल्क, पानी, खाद, खेत की जुताई, खुदाई, भराई, सफाई फिर बाजार में प्रतिस्पर्धा की मार इतनी होती थी कि थैली में सबका चुकाने के बाद कुछ हजार रूपये ही बच पातेे थे। जो कि या तो टैक्टर की किस्त में चले जाते थे, या दुनाके के उधार में चलते जाते थे जिससे से तीन माह से उधार लिया जा रहा है। या फिर हम भाइयों की फीस में चले जाते थे। फसल उगी भी थी इसका पता ही नहीं चलता था। किसान उस समय भी ठगा महसूस करता था और आज भी लग भग वही हालत है। अब हमने आलू बैने की जगह गन्ना लगाना शुरू किया है। जिसका अलग नुकसान है, साल भर उसे तैयार करो, घर से लागत लगाओं फिर उसे मिल में डाल कर अपने घर पर्ची लेकर भगवान से फिर प्रार्थना करों की मिल मालिक उसका भुगतान जल्द कर दें, लेकिन ऐसा होता नहीं है। सर्दियों में हमें भर पूर सब्जी मिलती है, जिसमें हम ऊंचे दाम पर लेकर खाते है, लेकिन यदि आप मंड़ी में जाएंगे तो वास्तविक मूल्य कितना मिलता है आप जान पाएंगे। किसानों की हालत दिखती ही अच्छी है, लेकिन वास्तविकता यह है कि है नहीं। यही कारण है कि कोई भी किसान अपने बेटे को किसान नहीं बनाना चाहता।

अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष - 2023

भारत गावों का, किसान का देश है। भारत जब आज़ाद हुआ तो वह खण्ड-2 था, बहुत सी रियासतें, रजवाड़े देश के अलग-अलग भू-खण्डों पर अपना वर्चस्व जमाएं ...