Sunday 23 December 2018

फसल बौता किसान है, लेकिन उसे काटते पूंजीपति है

देश के सात दश्कों बाद भी किसान बदहाल स्थिति में है। किसान की आर्थिक स्थिति आज भी नहीं सुधरी है, आंकड़े कुछ भी कहे, पक्के मकान कितने भी बन जाए, किसान के घर में ट्रेक्टर, कार देख अमुमन यही अनुमान लगाया जाता है कि किसान को अच्छी खासी रकम मिल रही है, लेकिन हकीकत कुछ ओर  ही है, जिसके केवल किसान और नीति निर्मात ही जान सकते है। कई ऐसी फसले है जिन्हें  किसान ऊगाना नहीं चाहता लेकिन किसान के फसल चक्र या यू कहे की मजबूरी में किसान उन फसलों को उगाता है। साथ ही अपनी जीविका के लिए बाजार पर निर्भर रहता है, यदि बाजार में भाव अच्छे मिल गए तो अच्छी बात, नहीं तो कई बार ऐसा भी होता है कि उसकी लागत भी नही मिल पाती है। ऐसे में मौसमी सब्जी उगाने वाले किसानों पर संकट अधिक रहता है। साथ ही कैश क्रोप उगाने वाले किसानों की भी चुनौती कम नहीं है , यदि गन्ना, कपास और तिलहन जैसी फसलों को उचित दाम समय पर नहीं मिल पाता है। साथ ही कुछ ऐसी फसले भी हैं जिनके आधार मूल्य सरकारों ने सुनिश्चित किए जुए है लेकिन जब किसान अधिकता में कोई भी फसल लेकर जाता है तो ऐसे में सरकारी गल्ले भी हाथ उठा देते है ऐसे में किसाने के पास केवल प्राइवेट बाजार ही बचता है जोकि प्रतिस्पर्धा का शिकार है जिसमें लगभग आधे दाम पर पक्की फसले बिकती हैं। मुझे याद है कि मेरा परिवार आलू की खेती बड़े पैमाने पर किया करते थे, खुद की आढ़त, मशीन, ट्रेक्टर और  स्वंय की सिचांई व्यवस्था होने बाद जब आलू की फसल तैयार होती थी तो वह लगभग एक ट्राली 8000 रूपये के आसपास जाती थी। जिसमें दैनिक 50 लोगों की मजदूरी, आढ़त का खर्च, मंड़ी का शुल्क, पानी, खाद, खेत की जुताई, खुदाई, भराई, सफाई फिर बाजार में प्रतिस्पर्धा की मार इतनी होती थी कि थैली में सबका चुकाने के बाद कुछ हजार रूपये ही बच पातेे थे। जो कि या तो टैक्टर की किस्त में चले जाते थे, या दुनाके के उधार में चलते जाते थे जिससे से तीन माह से उधार लिया जा रहा है। या फिर हम भाइयों की फीस में चले जाते थे। फसल उगी भी थी इसका पता ही नहीं चलता था। किसान उस समय भी ठगा महसूस करता था और आज भी लग भग वही हालत है। अब हमने आलू बैने की जगह गन्ना लगाना शुरू किया है। जिसका अलग नुकसान है, साल भर उसे तैयार करो, घर से लागत लगाओं फिर उसे मिल में डाल कर अपने घर पर्ची लेकर भगवान से फिर प्रार्थना करों की मिल मालिक उसका भुगतान जल्द कर दें, लेकिन ऐसा होता नहीं है। सर्दियों में हमें भर पूर सब्जी मिलती है, जिसमें हम ऊंचे दाम पर लेकर खाते है, लेकिन यदि आप मंड़ी में जाएंगे तो वास्तविक मूल्य कितना मिलता है आप जान पाएंगे। किसानों की हालत दिखती ही अच्छी है, लेकिन वास्तविकता यह है कि है नहीं। यही कारण है कि कोई भी किसान अपने बेटे को किसान नहीं बनाना चाहता।

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