Tuesday 23 September 2014

चकोर हर गांव में हैं, लेकिन उड़ान नहीं भर पाती :(


टीवी की दुनिया और टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले सीरियल की बुनिया तो.... सही नव्ज़ को पकड़ती है, लेकिन उसकी पगडंडी भोतिकवाद के वृत में ज्यादा देर तक एक क्षितिज में नहीं चल पाती। कर्ल्स पर प्रसारित उड़ान में चकोर की भूमिका हर गांव, हर देहात और हर उस नुक्कड़ के कुछ कदमों पर देखा जा सकता है। जहां पानी की किल्लत होती है। वहां ढे़र सारी चकोर पानी भरने के लिए आती है। यह चकोर गांव के उस सरकारी नल पर देखी जा सकती है। जहां गरीबी के चलते घरों में नल नहीं होता और बहुत सारी चकोर और उनकी माताएँ अपने दिन भर सारे काम काम तेज तपती दोपहरी में नल के आसरें से निपटाती है। कपड़े धोने, सुखाने, जानवरों को पानी पीलाना नहाना और बाद में अपने घर के काम काज के लिए घंटों पानी भर-भर के उसे अपने घरों तक ले जाना। चकोर शहर में सड़कों के किनारे बसी बस्तियों में देखी जा सकती है। जो इतनी ताकतवर और महबूत होगी है कि पुरुषों के साथ लोहें के आकार को बदलने और उन्हों लोगों की जरूरत के हिसाब से आकार देने के काम में बराबर की हिस्सेदारी की मिशाल है। चकोर मंदिरों के बाहर लगीं लाईन में देखी जा सकती है। जहां वह एक गरीब से भगवान की मूर्ति को लेकर दुनिया को यह दिखाने का प्रयत्न करती हैं कि जो लोग गरीब होते है उनके भगवान भी गरीब होते है और उस भगवान का साथ लेकर वह पूरे दिन अपने पेट की भूख को मिटाने के लिए इधर-उधर जो भी इस लायक लगता है कि वह उसकी मदद कर सकता है उसकी ओर दौड़ पड़ती है। चकोर की यह परिकल्पना नयी नहीं, बहुत पुरानी है। यदि आप ढूंढने का प्रयत्न करेंगे तो आप को बहुत से ऐसे लोग मिल जाएंगे जो एम.पी. साहिबा की भूमिका निभा रहीं हो और उनका बचपन कहीं ना कहीं चकोंर की तरहा रहा हो। 

खेर इस बात से शायद आप इतेफाक न रखे लेकिन यह चकोर बहुत से ऐसे लड़के के रूप में भी देखी जा सकती है। जो किसी चाय की दुकान पर मन मार कर किसी कारण से अपनों को कई सालों से संझाते हुए आ रहे होगे कि आप यह आखिरी दिन है। कल आखिरी दिन है लेकिन वो आखिरी दिन की शुभ घड़ी नहीं आ पाती। आप को बहुत से ऐसे चकोर भी मिलेगे जो अपने घर की स्थिति को सुधारने के लिए चकोर का रूप लिए हुए होंगे। बहुत से ऐसे चकोर आप को किराना की दुकान, सब्जि की दुकान, ढावों, ट्रकों पर और फैक्ट्री तो चीजें उत्पादित करतीं है, लेकिन उत्पादक का सारा काम  काज इनके नन्हें हाथों से होकर आता है। ऐसे डी.एम. भी हर जिले में हैं जो हर चकोर को उड़ान देना चाहते है, लेकिन कितनी चकोर को पार लगाए। टीवी सीरियल में तो एक चकोर है उसे एक दिन कोई-कोई सहारा दे देता है, क्योंकि यह पर्दें की दुनिया है। यहां हंसाने वाला कॉमेडी नाइट विद कपिल का सेट जलता है तो करोड़ो का सहयोग प्राप्त हो जाता है। लेकिन इन चकोरों को साधा जाता है। हितों की पैमाने पर जिन्हें कभी किसी भी उड़ान का हिस्सा नहीं बनाया जाता है। हौंसले सब रखते है। ऊर्जा सब रखते है। पंखों में जान सबके होती है, लेकिन वह इतने विशाल नहीं बन पाते की ऊची उड़ान भर सके। उन्हेें सीमित किया  जाता है। आर्थिता के रूप में, कभी हुनर के रूप में तो कभी प्रतिस्पर्धा के रूप में उड़ान भरने के लिए एक प्लेफार्म की जरूरत होती है। एक सहारे की जरूरत होती है। वह सहारा सभी चकोरों के नहीं मिल पाता है और बहुत सी चकोर चकोर बन कर रह जाती है। समय आगे बढ़ जाता है। और उड़ान समाप्त हो जाती है। बिना ऊंचाइयों को छुए।  © सुरेंद्र कुमार अधाना...

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