Wednesday 17 September 2014

अपनों के बीच बेगानी हिन्दी !

गली, मोहल्ले, नुक्कड़ आदि की दिवारों पर गौर फरमाएं तो अंग्रेजी सीखने और चंद घंटों में आप को पारंगत करने के दावे ठोकने वाले वाक्य आप को आसानी से मिल जाएंगे। कुछ लोग उनसे प्रभावित होकर उनसे जुड़ भी जाते है और अपनों को अंग्रेजी में होशियार समझने की दौड़ में शामिल हो जाते है। इन सब से हमारी आंशिक पूर्ति तो हो जाती है, लेकिन संपूर्ण पूर्ति नहीं हो पाती है। सम्पूर्ण पूर्ति के लिए या तो हम पूर्ण रूप से अंग्रेजी को जानना होता है या फिर पूर्ण रूप से हिन्दी को।
कभी-कभी प्रतियोगिताओं में भी अंग्रेजी का पर्चा बहुत परेशान करता है। अच्छों-अच्छों का पसीना छूट जाता है। जब बात हिन्दी की आती है। तो हम सब एक ही सांस में कहते है, ये भी कोई पेपर ये तो आसानी से हो जाएगा। बाद में पता चलता है कि अंग्रेजी में हाथ तंग होने के बाद भी हिन्दी में कम नम्बर आएं है। ऐसे में हिन्दी को आसान समझकर या दोयम दर्जें का स्थान देकर हम आगे निकल जाते है। हमारी हिन्दी पीछे छूट जाती है और वर्तमान में हो भी यही रहा है। हम हिन्दी की बिन्दी तक पर ध्यान नहीं देते और कहते है यह भी कोई पढ़ने की चीज़ है। मुझे तो इंग्लिश नोवल चाहिए। मेरी भी अलमीरा में बहुत से अंग्रेजी नोवल है आज भी वह पुकार करते है कि उनके ऊपर लगी पेकिंग कोई तोड़े और उन्हें पढ़ ले, लेकिन कुछ हिन्दी के नोवल आज भी कई लोगों के हाथों से होकर मट-मैले होकर एक हाथ से दूसरे हाथों तक पहुंच रहे है। लेकिन यहां पर प्रश्न उठता है क्या वाके ही हिन्दी नोवल पढ़े जा रहे है। शायद नहीं ! आज-कल युवाओं की हिन्दी नोवल पढ़ने की जिज्ञासा कम देखी जाती है। जितने लोग हिन्दी किताबों या हिन्दी नोवल पढ़ते है भी उनके पीछे किसी ना किसी प्रभावशाली व्यक्ति का हाथ होता है या कुछ पाने या कर दिखाने की लालसा उन्हें प्रेरित करती हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं की हिन्दी को पढ़ने वाली की कमी हुई है। पढ़ने वाले मिलते है तो लिखने बाले कम मिलते है। हम अपनी बातों को व्यक्त करना का माध्यम तो हिन्दी रखेंगे लेकिन उसे प्रस्तुत अंग्रेजी के माध्यम से करेंगे। या अंग्रेजी के ढेर सारे शब्द वाक्य विन्यास को पूर्ण करने के लिए शामिल कर लिए जाते है। इसमें भी कोई दो राय नहीं की हम अपने बच्चों को हिन्दी वादी बनाना चाहते है। ऐसे बहुत ही कम लोग होंगे। सब चाहते है उनके लाड़ले अंग्रेजी जरूर जाने चाहे हिन्दी ना आएं तो कोई बात नहीं, क्योंकि अंतिम में उसे अंग्रेजी से बड़ी लड़ाई लड़नी ना पड़े। यूपीएससी ने सिविल सेवाओं में अंग्रेजी की आनिवार्यता को बनाए रखने के लिए अपनी आह्ताएं रख दी, लेकिन हिन्दी क्षेत्रों के युवाओँ का बड़ा विरोध का सामना करना पड़ा। यदि हम प्राइवेट स्कूलों की बात करें तो वह बच्चों से हिन्दी बोलने पर शुल्क तक लगाएं जाते है। यहां पर मंशा चाहे कुछ भी हो लेकिन यह सब छोटे-छोटे कारण है जो हिन्दी को पीछे छोड़ते है। हिन्दी से रोजगार की मार में वृद्धि हुई है। यदि कोई युवा अंग्रेजी जानता है और हिन्दी का जानकार नहीं है तब भी हर नौकरी के लिए काबिल है। लेकिन हिन्दी जानने के बाद भी लाखों काबिल लोग, योग्यता के आधार पर मुख्य धारा से दूर कर दिये जाते है। ये कसूर हमारा है या हिंदी का। जवाब कुछ भी हो मुसिबत हिंदी भाषी लोगों की है और हिंदी जानने की है। हमें यह सोचना होगा कि हिन्दी को किस आधार पर ले। कहीं -कही हिन्दी न जानने पर तो कहीं हिन्दी मात्र की अधिक जानकारी आप को ले डूब्ती, आप को अपनी नाम और नाव की योग्यता के पैमाने के साथ तालमेल बैठाना होगा। नहीं तो नैय्या पार नहीं लग पाएंगी। हिन्दी की अपनी सीमाएं है उन्हें पहचाने और आगे बढ़ते रहें। $KA 

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