Monday, 23 September 2019

ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले , ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है

प्रोफेसर प्रभुदत्त खेरा दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली में समाजशास्त्र के प्रोफेसर रहे। वे सन् 1983 में बिलासपुर आने पर अमरकंटक व अचानकमार अभयारण्य शोधार्थियों के साथ घूमने के लिए पहुंचे थे। यहां वे बैगा आदिवासियों के जीवन विशेषकर बच्चों के जीवन को देखकर व्यथित हो उठे, तभी उन्होंने यहां रहकर अपना शेष जीवन काल इनकी सेवा के लिए बिताने का संकल्प ले लिया। अगले साल सेवानिवृत्ति के पश्चात वें यहां आ गए। वे अचानकमार अभयारण्य के लमनी, छपरवा, सुरही आदि गांवों में पैदल घूम-घूमकर बच्चों को साफ-सफाई से रहने के लिए संदेश देते रहें। बच्चों को नहलाना, कपड़े पहनाना, बाल संवारना, उनके बढ़े  नाखून कॉटना, मच्छरदानी बनाना, पेड़ लगाना, पढ़ाई के लिए किताबें देना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। वे इन सब कार्य में खुद को संलग्न पा इतना खुश होते थे मानों वह अपने परिवार के बच्चों के साथ अपना जीवन जी रहे हो। उन्हें इतना स्नेंह और प्यार देते मानों वह बच्चों के अपनें हो। 
प्रो. प्रभुदत्त खेरा                     फोटो गूगल के सौजन्य से
 आदिवासियों में जागरूरता फैलाने के लिए उन्होंने महिलाओं और बच्चों को आधार बनाया ताकि परिवार की अच्छे से देखभाल कर सके उन्होंने पौष्टिक भोजन, जीवन को जीने के तरीके, कम सुविधाओं के साथ तालमेल बैठाने के अनेकों उदाहरण प्रस्तुत कर लोगों में आत्मविश्वास को बढ़ावा दिया ताकि महिलाएं और बच्चें सशक्त हो सके।  इसके लिए वें सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने के लिए सरकारी महकमों और कार्याल्यों से भी सम्पर्क साध कर जन मानस को मिलने वाली सुविधाओं को दिलाने में सदैव आगे रहते थे। वह एक झौला सदैव अपने पास रखते थे, जिसमें आम तौर पर अपने लिए छोटा-मोटा सामान, देसी जड़ी-बुटियां व दूर-दराज के इलाके के लोगों के लिए मलेरिया, बुखार, दस्त आदि की दवाएं होती थीं। 

वें अधिकांशत: पैदल ही यात्रा करते थे रोज 15 से 20 किलोमीटर की पैदल यात्रा आम थी। वे लमनी क्षेत्र में एक झोपड़ी में रहते थे। उन्होंने अपनी पेंशन की अधिकांश रकम भी इन्हीं आदिवासियों के कल्याण पर खर्च कर दी। ऐसा बताया जाता है कि कुछ छात्र जो पढ़ाई में बहुत अच्छे थे उन्हें उन्होंने पेंशन की राशि से उच्च शिक्षा ग्रहण करने के प्रोत्साहित किया, उन्होंने लमनी में अपने खुद के प्रयासों से बच्चियों के लिए स्कूल खोला है, जिसके लिए समाज के लोगों ने उनका साथ दिया और उनके प्रयासों से प्रभावित होकर उनके लिए आर्थिक मदद कर स्कूल को चलाने में मदद् की।
उन्होंने विवाह नहीं किया, उनका मानना था कि लोगों के जीवन में कुछ आएं न आएं उनके चेहरे पर खुशी आनी चाहिए जो व्यक्ति का जीवन बदल देती है
कराची (पाकिस्तान) के मशहूर लेखक, कवि जौन एलिया साहब ने क्या खूब लिखा है........कि
मैं भी बहुत अजीब हूँ इतना अजीब हूँ कि बस। ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं।।

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