स्वतंत्रता के बदल गए मायने... अब भी लोग स्वंय को आजाद महसूस नहीं करतें। इसके
पीछे सब की ब्यथा भिन्न-भिन्न है। कही किसी को कानून की जकड़ ने गरीबी दे दी। किसी
के संविधानिक अधिकारों का गला घौंटा गया। कही किसी सरकारी विभाग में अपने हक के
किसी व्यक्ति ने जीवन का बलिदान दे दिया। क्या ऐसे सक्श के परिजन स्वंय को
स्वतंत्र महसूस करेंगे ? यदि करेंगे तो उसके मायने और विचार ओर लोगों से अलग होंगे।
भारत की अंतरिक छवि उसके मंत्री, अधिकारी और तमाम सरकारी महकमों में बैठे सैकड़ों
उन लोगों द्वारा बनती है जो कि हिंदुस्तान की कार्यपालिका, न्यायपालिका और
विधायिका को चलाने के लिए एक मजबूत स्तंभ हैं। यदि किसी गरीब व्यक्ति को अपना
बीपीएल कार्ड बनवाने के लिए बेफ्जूल का समय, धन और हाथ-पैर जोड़ने के बाद भी मूंह
की खानी पड़ती है तो उसके लिए 15 अगस्त या 26 जनवरी के कोई मायने नहीं होते।
भारतीय सरकारी महकमें की वास्तविकता जानते हुए भी आला आधिकारी, मंत्री, नौकरशाही
मौन बैठे रहते है। काम यू ही बदस्तूर जारी रहता है। कहा जाता है-पढ़ेगा इंडिया तभी
तो बढ़ेगा इंडिया ....आडिया बहुत ही उम्दा किस्म का है। मैं यकीनन कह सकता हूं कि
ये विचार किसी मंत्री को तो नहीं आया होगा। क्योंकि कुछ लोग देश की जनता को
शिक्षित देखना ही नहीं चाहते। यदि अधिकारों की बात की जाए तो एक पढ़ा लिखा व्यक्ति
भी देश के गौरव, मान-सम्मान और गरीमा के लिए उतनी शिद्दत से स्वंय को देश भक्त
नहीं कहलाना चाहता। क्योंकि कही न कही किसी बात से वह भी आहत होता है। यदि अरविंद
केजरीवाल एवं मनीष सिसौदिया जैसे लोग आवाज़ बुलंद करते हैं तो मंत्री और सरकार को
उसमें, उनके हित नजर आने लगते है। एक पढ़े लिखे नागरिक आए दिन पासपोर्ट बनवाने के
ऑफिस के लिए चक्कर कांटते देखे गए है। जिनमें कुछ लोग तो ऐसे हैं जो सालों से लाईन
में इसलिए लगते आ रहे है कि उनके पास पुलिस या पता बेरिफिकेशन करने वाले की जेब
गरम करने के लिए रुपया नहीं है। ऐसे में कई सालों तक चक्कर काटने के बाद हताश
नागरिक देश पर गर्व किस प्रकार कर सकता है। ये बात वे पढ़े लिखे अधिकारी भी जानते
है कि क्यों किसी की फाईल बंद कर दी गई। या पासपोर्ट रद्द कर दिया। लेकिन कोई जहमत
उठाने वाला नहीं है। हमारे यहां नागरिकता के मायने कुछ इस तरह है कि आप को जरूरत
पासपोर्ट की होगी लेकिन कार्य आप के वोटिंग कार्ड के लिए ज्यादा शिद्दत से कराए
जाते है। जिसमें हम आम नागरिक अपना ज्यादा हित खोजते है लेकिन वास्तविक हित तो कुछ
ओर ही होता है। अब जनता भी सब जानती है सरकार भी सब जानती है। लेकिन अधिकारों की
लड़ाई में आम व्यक्ति बौना पड़ जाता है जीत बाहुबलि की हो जाती है।
यह ब्लॉग एक विचारधारा है। जिसमें लेखक की अनुभूति है, विचार है, भावनाएं हैं, संवेदनाएं हैं और अधिकारों को सचेत करने की आशा है।
Saturday, 31 August 2013
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