ये लहराते पत्ते, झूमती टहनियां, कीट-पतंगों की आवाज़ें कहीं गुम हो गई।
शहर मेरा आगे निकल गया है, हरियाली कहीं खो गई।
हजारों पेड़ काट फैंके, बस अपने मोटे मुनाफो को।
अब कम दिखता है, लोगों में प्रकृति के प्रति अपनापन,
लोग पेड़ों से अक्सर छीन लेते है, जो लगता है जरूरत मंद।
देखों कैसे ! लोग नौंच रहें है पेड़ों के फल, फूल, लकड़ी, पत्ता, टहनी को
हम सब को सब चाहिए, लेकिन सोचिए ! कुछ तो चाहिए होगा पेड़ों को।
हम सब को सब चाहिए, लेकिन सोचिए ! कुछ तो चाहिए होगा पेड़ों को।
© सुरेन्द्र कुमार अधाना