प्रसिद्ध कवि पॉश ने कहा था कि ‘सबसे बुरा होता है सपनों का मर जाना’। प्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी कहती हैं- ‘सपने देखना मौलिक अधिकार होना चाहिए’। सपने जीवित रहने चाहिए । सपनों की सांसो में ऊर्जा, शक्ति, स्फूर्ति का संचार होते
रहना चाहिए। सपनों को महनत की जरूरत होती है। कुछ सपने बिना मेहनत के भी इंजॉय किए
जाते है। लेकिन सपनों को बिना महनत इंजॉय करना भी सभी के बस की बात नहीं। इन पर
किसी का ज़ोर नहीं, ये कब आते है कब जाते है किसी को कानों कान ख़बर नहीं देते।
खोजी पत्रकारिता भी इन्हें
छूने की जुगत तक नहीं कर पाती है। सपना देखना पर भी कॉपी राइट होना चाहिए ताकि कोई
किसी का सपना न चुरा सके। सपने देखना मौलिक अधिकार होना चाहिए ताकि सभी को सपने
देखने का समान अवसर मिल सके। डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने सपनों के संदर्भ में कहा है
कि सपने वह नहीं जो सोते वक्त देखे जाए, सपने तो वह है जो सोने ना दे। हम भी
इन्हीं सपनों की बात कर रहे है। समाज में हर वर्ग का, व्यक्ति विशेष का अपना सपना
होता है। जिसे वह पाना चाहता है। जीना चाहता है। इंजॉय करना चाहता है। लेकिन सपनों
की दुनिया से दूर होता युवा अपने को वर्तमान समय में अलग- थलग पा रहा है। जीवन की
गुत्थी जटिल होती सी दिखाई दे रही है।
वर्तमान परिपेक्ष्य में सबसे
बड़ा दुर्भाग्य यह है कि युवा सपने ज्यादा देखता है, उन पर अमल नहीं करना चाहता,
सपनों को साकार तो करना चाहता है लेकिन परिश्रम नहीं करना चाहता। सपनों में वह खुद
महरूम होना चाहता है, मेहनत किराए पर या किस्तों पर करना चाहता है। युवा सपने
साकार करने में नाकाम हो रहा है। क्यूं हो रहा है यह बड़ा सवाल है ? हर बार महनत करने के लिए एक शुभ मुहुर्त की आवश्यकता महसूस
करता युवा मंजिल/ सपनो की दुनिया से कैसे दूर
हो जाता स्वयं वह खुद भी नहीं जानता है।
अब सपने देखने की सुविधाएं
बढ़ गई है। सपने हाई-टेक हो गए हैं। धरातल से युवाओं का संबंध कोसो दूर है। जिसकी
हकीकत बनने और बनाने के लिए एक लम्बी प्लानिंग की जरूरत महसूस की जाने लगी है। संकल्प
शक्ति की जरूरत होती है। समय प्रतिस्पर्धी है। शॉट-कट के इस जमाने में प्लानिंग भी
मोबाइल, लेपटॉप और आइपॉड पर अपडेट हो रही है। जैसे आज गणित की गुत्थियों को हल कर युवाओं
ने मोबाइल को जेब में रख लिया है। कुछ युवा सुविधाओं का लाभ पा हजारों-लाखों
प्रतियोगियों को दिन-प्रतिदिन पीछे छोड़ते हुए बहुत दूर निकल गए है। उनकी उम्मीदें,
इच्छाएं भी असीमित है। जो न तो इंग्ति की जा सकती है और न ही व्यक्त।
आज सुविधाएं मुट्ठी में है।
ऐसे में युवाओं को सुविधाओं से दूर कैसे रखा जा सकता है। लोगों की मुट्ठी में
दुनिया को देने का सपना उद्योग बन चुका है। यह वैश्विक कारोबार बन चुका है। सपनों
का विकेंद्रीकरण हो चुका है। आज सब कुछ सबका है। युवा विचार, युवा सपने नारा बन
चुके है। एक दूसरे से आगो निकलने की होड में रोजाना कुछ नया घटित हो रहा है।
घटनाएं तकनीक बन चुकी है। और तकनीक घटनाओं में रूपांतरित हो रही है। पूंजीवाद के
इस दौर में सब अपने-अपने जुगत में लगे है लोगों की जिंदगी को इंजॉय करने के हजारों
विकल्प बाजार सुझा रहा है। लोगों को इंजॉय कराने के लिए बिग टीवी, टाटा स्काई लाईफ
को झिंगालाला बनाने में लगे हैं। जो युवा इस बाजारीकरण का हिस्सा है। उनके सपने
सजोने और बुनने में यह भी कही हद तक सहयोग देने में सफल साबित हो रहे हैं।
तेजी से बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था
में युवाशक्ति का बड़ा योगदान है जो कि किसी भी देश की सबसे बड़ी सम्पत्ति मानी जाती
है। भारत में युवाओं का प्रतिशत भारतीय जनसंख्या में सबसे ज्यादा है। कहा जाता है
कि किसी भी देश की तस्वीर बदलने में युवाओं का अहम योगदान होता है। वरन भारत में
भी यह स्थिति अपने चरम पर है जहां युवा अपने मनोबल से दुनिया जीतने के जुगत में हैं।
प्रतिभा दिखाने के हजारों
मंच युवाओं का इंतजार कर रहे हैं। हजारों युवा अपने नाम की डंका बजा मां-बाप की
तपस्या का उदाहरण बन रहे हैं। करियर, उम्मीदें, सपने और शिखर युवाओं के लिए अहम
हैं। अनेकों ऐसे युवा हैं जो करियर के शिखर पर पहुंच कर भी समाज, देश, सरोकार और
मानवता के लिए करियर को स्थगित कर रहे है। ऐसे भी है जो सफलता चाहे वह किसी भी
कीमत पर हो उसे ही सबकुछ समझते है, मानते है। करियर ही समाज है, राष्ट्र है। ‘नैतिकता और मूल्य पलायन है’।
सब कुछ के बावजूद कही ना
कही से कुछ छूटा नजर आ रहा है। लगता है कुछ स्थगित हो गया है। युवाओं की एक बड़ी
जनसंख्या को वह मार्ग नहीं मिल रहा है जिससे जीवन और संघर्ष को सार्थकता मिल सके। जिन्हें
आज की ख़बर नहीं कल का पता नहीं, आर्थिक मंदी से जूझता युवा गलत रास्तों का आश्रय
लेना क्यूं चाहता है।
यदि किसी युवा से पूछा जाए
कि आप किसे अपना आदर्श मानते हैं तो ज्यादातर युवा खिस्यानी बिल्ली की तरह खम्भा
नोचते हुए नजर आएंगे। लगता है हमारे सामने ऐसा कोई नायक नहीं है जो उन अधूरे, बिन
देखे सपनों को तराश सके । इस वैश्विक
दुनिया में पास-पास होते हुए हम दूर होते जा रहे है। ग्लोबल गांव के वाशिंदें हम सभी
संवादहीनता से जूझ रहे है। मीडिया माध्यमों, फेसबुक, ट्वीटर, लिंकइन, गूगल प्लस
सभी तो हैं लेकिन क्या है कि हम नायकविहीन से हो गए है। हमारी संवेदनाओं का चीर-हरण
हो रहा है। भावनाएं सिमट रही हैं। ज्ञान- विज्ञान और सूचना संसार की तकनीकों से
लैस हम सभी सिमटे हुए लगते हैं। कहा तो यह जा रहा है कि मानवीय सभ्यता का यह एक
उत्कर्ष काल है। जिसमें सुविधाओं का अंबार है।
अब जब कि समाजवादी सपने
परिसरों में जिंदा शब्द की तरह मौजूद है। कार्लमार्क्स, लेनिन, गांधी, अंबेडकर,
लोहिया और उन तमाम मानवीय सपनों को शब्द
भर बना दिया गया है। पूंजीवाद ने मानो इस वैश्विक दुनिया में उन मूल्यों को भी
अपना बना लिया है, अपना लिया है जो उसके लिए मुनाफे बन सकते हैं। पूंजीवाद ने वेश
बदलकर, विचार धाराओं का चहरा बदल कर वैचारिक आकाश को छाज दिया है। युवा की आंखों
में बड़े-बड़े सपने हैं। बड़ी उम्मीदे है और इन उम्मीदों को पूरा करने की ओर बढ़ते
छोटे-छोटे कदम कब काल कोठरी तक जा पहुंचते हैं, यह उन्हें खुद भी पता नहीं चलता।
युवा रुमानियत की दौड़ में अंधे हुए नंगे पैर ऊचाइयों को छूने की चाह में सरपट
दौड़ रहा है। जिनकी न कोई मंजिल है न कोई ठिकाना। आज आधी आबादी से ज्यादा युवा
दिशाहीन हैं। उन्होंने न तो मार्गदर्शन देने वाला है और न कोई मंजिल की राह में रोशनी
दिखाने वाला। इस दुर्दशा के बड़ी हकदार अशिक्षा है।
जीवन को सुंदर, सार्थक और
सुचिंतित बनाने के लिए जिन लोगों ने सपने देखे हैं उन सपनों को उड़ान देने की
जरूरत है। लेकिन सपनों की उड़ान जगह एक लक्ष्यहीन लक्ष्य हमारे सामने है। हिंसक
परिदृश्य में युवाओं को रास्ते की तलाश है। रोज ऐसे सैकड़ों उदाहरण लिए जा सकते है
जहां लूट-पाट, डकैती, चोरी, दंगा-फसाद घटित हो रहे है कही ना कही हर क्षण हर रोज
ऐसे में युवा क्या करे ?
-सुरेंद्र कुमार
अधाना