Friday 6 September 2019

प्लास्टिक प्रदूषण से बढ़ती समस्यां

वह दिन दूर नहीं जब हम अपने किए पर पछताएंगे और कहेंगे कि शहरों से अच्छे गांव है और गांवों से अच्छे वह सूदूर क्षेत्र जिनमें शायद जनजातियां ही रहती है। शहरीकरण और हर दिन हमारी बढ़ती मांगों और फैलती अधुनिक बाजार की संकल्पना ने इसे और अधिक घातक बनाने का काम किया है। हम न जाने चाहते और न चाहते हुए कितनी प्लास्टिक और पॉलिथिन अपने घर ले आते है हम भी पता नहीं चलता, क्योंकि हम जिंदगी की उस दौड़ में शामिल है जिसने हमारे जीवन जीने को तो सरल बनाया है लेकिन भविष्य में इसकी सूरत कितनी भयानक होगी। शायद् इसका हमें अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस शहर में हम रहते है उसमें भ्रमण करे और देखे की जो हमारे घरों से निकले वाली गंदगी है वह कहा जा रही है हम दैनिक जीवन में प्रयोग में लाने वाली चीजों के लिए कितनी प्लास्टिक और पॉलिथीन प्रयोग करते है साथ ही उस हम किस स्थान पर छोड़ते है इसका प्रभाव भी हमारे सामने है। आज शायद पृथ्वी का कोई ऐसा कौना बचा होगा जिमें पॉलीथीन या प्लास्टिक की पहुंच ना हो।
स्थिति और अधिक बदतर जब हो जाती है जब यह सुविधाओं से भरी प्लास्टिक का निस्तारण समय से और पूर्ण रूप से न कर लिया जाएं। हमारी जीविका ने प्लास्टिक के प्रयोग को इतना बढ़ा दिया है कि यदि हम आस-पास की चीजों को देखे तो बहुत सी दैनिक इस्तेमाल की वस्तुओं का निर्माण प्लास्टिक से ही हुआ है और जब हम उसमें रखी वस्तु का उपयोग कर लेते है तो उस प्लास्टिक के साथ हमारा कैसा व्यवहार होता है और उसका निस्तारण होता भी है के नहीं हम नहीं जानते।
यदि केंन्द्रिय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक अध्ययन के अनुसार भारत में प्रतिदिन 25940 टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है। जिसका लगभग 40 प्रतिशत प्लास्टिक कचर फिर से इक्ट्टा नहीं हो पाता है। ऐसे में यह कचरा या तो मिट्टी के अंदर, जमीन के ऊपर या पानी में किसी न किसी रूप में कायम रहता है इसके गलने और सड़का का चक्र बहुत बड़ा होता है ऐसे में यह बचा कचरा भारत जैसे विकासशील देश के लिए बड़ी समस्यां है। इतना ही नहीं जो बड़े शहर है वहां जनसंख्या के बढ़ते घनत्व और अधिक जनसंख्या की मांग के चलते प्लास्टिक में बंद सामान ज्यादा खरीदा जाता है जिसका परिणाम यह होता है कि ऐसे शहरों में कचरा उत्पन्न भी ज्यादा होता है। दिल्ली में 690 टन प्लास्टिक कचर प्रति दिन उत्पन्न होता है। देश में सबसे ज्यादा कचरा उत्पन्न महाराष्ट्र में होता है जो कि चार लाख सत्तर हजार टन के आसपास सालाना कचरा पैदा करता है। जिसका आधिकाशं हिस्सा समुद्र की सतह पर देखा जा सकता है। इसके बाद सालाना अधिक कचरा उत्पादन में गुजरात और दिल्ली का नाम आता है। बड़ी समस्यां यह नहीं है कि कचरा पैदा हो रहा बड़ी समस्यां यह है कि उस प्लास्टिक को किस-तरह से दौबारा एकत्र किया जा सके उसको पुन: किसी रूप में इस्तेमाल किया जा सके। इसके लिए न तो सरकारों के पास कोई ठोक विकल्प है और न ही दूरदर्शिता। बड़ी-बड़ी कम्पनियां अभी की प्लास्टिक के पैकेट में सामान बाजार में बैच रहे है उन पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है क्योंकि यह प्लास्टिक मिट्टी में तो सड़ता है और न ही घुलता है परिणाम यह होता है कि यह मिट्टी की अवशोषित करने की क्षमता को घटाता है जिससे मिट्टी जल अवशोषित नहीं कर पाती है और भू-जल की समाप्ति होनी लगती है।
भारत में 22 प्रदेश ऐसे हैं जिनमें प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई हुई है, लेकिन इनसब के बाद भी प्लास्टिक का प्रयोग रूकने का नाम नहीं ले रहा है। जिसमें सबसे बड़ी समस्यां सरकार के फैसलों को ही गलत ठहराया जा सकता है क्योंकि किसी भी कानून को बनाने से पहले यह विचार जरूर कर लेना चाहिए कि यदि प्लास्टिक बैन होता है तो जनता के पास इसका क्या विकल्प है। क्यां बाजार में विकल्प के रूप में दूसरी चीज़ उपलब्ध भी है के नहीं या स्वयं सेवकों या छोटी-2 इकाइयों को सरकारी मदद् से कुछ विकल्प तैयार कराकर बाजार में उपलब्ध कराए जा सकते है। 05 प्रदेश ऐसे भी है जहां इस बात को अधिक गंभीर न मानते हुए कोई कानून लागूं नहीं है।
सरकारों की बाकी विषयों की तरह इस पर भी गंभीरता दिखानी चाहिए ताकि हम अपने अतीत से शिक्षा लेकर भविष्य में अपनी पीढ़ी को एक सुनेहरा वातावरण देकर जाएं तो वह भी खुली हवां में सांस ले सके, साफ पानी पी सके और अपनी धरा पर गर्व करते हुए उससे प्यार करें।

पुरानी आस्थाएं, आज का प्रदूषण

जो पहले नल था अब वह स्वतं चालित जनकूप है, जो पहले नाली थी अब वह नाला है, जो पहले नहर थी अब वह नाला है।  जो आज नदियां है वह प्रदूषित सूखी झील है,  जिनमें यदा कदा पानी आता है और जहां जहां बचा रह कर या नदियों से प्रदूषित जल यहा 

Sunday 1 September 2019

नागरिकों पर वार, नियमों की कतार

आज यानि सितम्बर 2019 की पहली तारीख से भारत सरकार ने यातायात नियमों में बहुत से बदलाव किए है या यू कहे कि बदलाव नहीं सिर्फ यातायात के नियमों का उल्लंघन या नियम तोड़ने पर आपको पहले से लग रहे जुर्माने के 10 गुना तक वसूली की जाएंगी। बाकी सरकारी व्यवस्थाएं वैसी की वैसी जैसे पहले थी पुलिस पुरानी, सड़के पुरानी, व्यवस्था पुरानी, काम-काज का तरीका पुराना, सुविधाएं पुरानी, सड़को की गुणवत्ता और मानक पुराने बस बढ़ाई गई है तो कानून तोड़ने के नाम पर कानून न कह कर इसे वसूली कहना सही रहेगा। इतिहास गवाह रहा है कि भारत जैसे अधिक जनसंख्या वाले देश में जब कुछ नया करने जा रहे होते है तो बेकसू लोगों को अधिक परेशानी का सामना करना पड़ता है। इसका हालिया उदाहरण नोट बंदी से लिया जा सकता है। सरकारों या निति बनाने वाले को पता होना चाहिए कि जिस देश में 30-35 प्रतिशत जनसंख्या केवल खाने के लिए रात-दिन एक कर देती है। जिस देश में करोड़ों की संख्या में देश के बच्चे का शिकार हो। जिस देश में हर गली महिल्ले में तंबाकू और शराब की दुकान सिर्फ लोगों की बुद्धि खराब करने के लिए उपलब्ध हो, जो करोड़ों घरों की दैनिक समस्यां हो। ऐसे में कानून उन सब समस्याओं पर बनाने की जरूरत है। जहां हर मिनट बलात्कार जैसी घिनौनी हरकत होती हो, उन पर कानून बनाने की जरूरत है। जो लाखों मुकदमें जजों की कमी से रूके पड़े है उन पर कड़े कानून की आवश्यकता है। किसान की गरीबी, देश में प्रदूषित होता पानी, भष्टाचार, तेजी से बढ़ती शहरी गंदगी जैसे बड़े मु्ददे जीवन में रूकावट पैदा कर रहे है उन सब को नजर अंदाज कर हम ज्यादा दिनों तक आंख नहीं मूद सकते। 
सरकारों को कानून बनाने का अधिकार है, उन्हें जनहित में लागू करने का जिम्मा भी उन्हीं का है, लेकिन सरकारों को इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि जिस देश के नागरिकों के लिए यह कानून बनाएं जा रहे है क्या वहां का नागरिक उन कानूनों को वहन करने के लिए तैयार भी है के नहीं। जिस देश में लगभग 45 प्रतिशत जनसंख्या की आमदनी 12 हजार रूपयों से भी कम हो, ऐसे में मोटर वाहन का प्रदूषण फैलाने पर 10,000  रुपये का जुर्माना कैसे संभव है और मान भी लें कि संभव है उसकी आड़ में जो एक प्रदूषण संबंधि प्रमाण पत्र दिया जाता है वह मात्र कागज है सभी के वाहन उसके मुताबित सही है। सरकारें ऐसे काम काज को कैसे मूक-बधिर बने कैसे देख सकती हैं हम सब जानते है कि जो प्रदूषण प्रमाण पत्र देते है वह किसी मानक या किसी तकनीकि का प्रयोग नहीं करते बस फोटो खीचते है और कागज़ का टुकड़ा पकड़ देते है। 
कोई भी तंत्र ऐसा नहीं हो सकता कि उसे अपनी जनता की जानकारी ना हो और यदि ऐसा है तो पहले वह जनता को जाने फिर उसके लिए कानून तैयार करें। जनता जब रोटी के लिए जुगत कर रही हो ऐसे में उससे बड़े दण्ड की भरपाई करपाना संभव नहीं है और यदी वह किसी प्रकार दण्ड की भरपाई कर भी देता है  तो ऐसे में उसके परिवार की जीविका का क्या होगा उस पर भी कानून बनाने से पहले विचार करने की आवश्यकता है। कानून बने, लेकिन उन सब के विरूद्ध जो परम आवश्यक मुद्दे है जैसे नशे में गाड़ी चलाना, धूम्रपान करते हुए गाड़ी चलाना, मोबाइल पर बाते करना, हेल्मेट न लगाना, तेज रफ्तार में गाड़ी चलाना, ओवर-लोडिग आदि ऐसे नियम हो सकते है जो कड़ाई से पालन कराने की आवश्यकता है। 
सवाल यह भी उठता है कि जब कानून बनाने वाले और रखवाले ही स्वयं कानून तोड़ेंगे तो उन पर सामान्य नागरिक से दो गुना जुर्माना वसूला जाना चाहिए, क्योंकि वही देश को उदाहरण प्रस्तुत करते है। किसी नेता और पुलिस की गाड़ी के लिए नियम अलग नहीं हो सकते । यदि रिसर्च पर गौर करेंगे तो पाएंगे अधिकांशत सरकारी तंत्र की सुविधाएं ही अधिक खराब स्थिति में हैं, अधिकांश लोकल बस और किसी-किसी रोडवेज बस की स्थिति इतनी दयनीय होती है कि बैठने लायक नहीं होती दूसरा उसमें ओवर लोडिंग का तो मुद्दा आम है। ऐसे में हमें स्वयं में स्थिति की खमियाओं को खोजने की आवश्यकता है, जनता का क्यां है बेचारी थी और बेचारी रहेगी।

अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष - 2023

भारत गावों का, किसान का देश है। भारत जब आज़ाद हुआ तो वह खण्ड-2 था, बहुत सी रियासतें, रजवाड़े देश के अलग-अलग भू-खण्डों पर अपना वर्चस्व जमाएं ...