हुक्के का अंदाज़, रूतबा, रंगत अलग ही है। हुक्के के साथ बैठक में जब मूढ़े,
खाट और कुर्सियों पर चार-पांच आदमी
बैठ जाते है तो बातों के बहाव
में हुक्का गुडगुडाते हुए सभी संगी-साथी हजारों मीलों की यात्रा कर आते हैं।
टटार दोपहरी में वृद्ध पेड़ के नीचे,
घर के आंगन में, घेर के चौतरे, कच्ची मिट्टी/धरती पर गांव के
किसी सामुहिक
चौपाल में यह दृश्य आज आम नहीं है। इन्हें देखने के लिए
किसी दूर-दराज के ठेठ
गांव की सैर करके ही देखा जा सकता है। आज हुक्के का चलन घट रहा है। लोगों की आर्थिक स्थिति और रहन-सहन में आए बदलाव के साथ हुक्के के इंस्तेमाल
में भी बदलाव आया है। स्वास्थ्य के लिहाज से यह अच्छी ख़बर है क्योंकि तंबाकू को
स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना गया है। लेकिन एक ग्रामीण परिवेश की पहचान का अहम
तत्व हुक्का अब अपने अस्तित्व की
लड़ाई लड़ रहा है। लिहाजा जिन घरों में कभी किसी बुर्जुर्ग द्वारा हुक्के का उपयोग
किया जाता था। वहां आज या तो हुक्के का इस्तेमाल खत्म हो गया है। या कही-कही उस व्यक्ति की याद में
या उस आबो हवा को बनाएं रखने के लिए
हुक्का पीने की परम्परा
का रिवाज भी कई गांवों की संस्कृति में शामिल है।
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आग और पानी को
देवता तुल्य माना गया है। और इन
दोनों को एक ही स्थान पर पाकर इसे घर की सम्पन्नता और समृद्धि का प्रतीक मान कर
ग्रामीण परिवेश में पूजा भी जाता है। प्राचीन काल से ही हुक्का भारतीय संस्कृति में अपना
गौरवमयी तथा गरिमापूर्ण इतिहास रखता है। उत्तर भारत के लगभग सभी प्रदेश के ग्रामीण
क्षेत्रों में हुक्के का ग्रामीण जीवन से
गहरा संबंध है। यह कह पाना मुश्किल है कि हुक्के का जन्म कब और कहां, किन परिस्थितियों
में हुआ, मगर हुक्के का निर्माण बड़े ही व्यचारिक
तरीके से हुआ है इसको नकारा नहीं जा सकता। हुक्के की अपनी अलग मान-मर्यादा है। हुक्के के पीने व भरने के भी कायदे-कानून है। मौजूदा लोगों में
सबसे कम उम्र वाला शक्स ही हुक्का भरता है और सबसे बड़ी आयु
का व्यक्ति या मेहमान ही हुक्के का पानी निकासी के साथ पहला कश लगाता है। कई
गांवों में यह परम्परा है कि जब तक
मेहमान को हुक्का ताज़ा कर के (ताजा पानी डालकर) न दिया जाए, तब तक महमान का सम्मान अधूरा माना जाता है। अर्थात हुक्का मान-सम्मान का भी
प्रतीक है। हमारे ग्रामीण कुटुंब में आपसी मतभेद को
भुलाकर हुक्के को पीने के लिए बैठ जाना आम बात है। हुक्का आपसी भाईचारे का भी प्रतीक
है। किसी भी खुशी या गम में हुक्के का
समान रूप से प्रयोग होता है। हुक्का पीते हुए उसके चारों ओर बैठकर घर-परिवार-गांव आदि की
विभिन्न समस्याओं पर चर्चा करना भी आम बात
है और इस तरह के चौपाल गांव की शौभा में चार चांद लगाती है।
न्यायिक चौपाल या पंचायत में भी हुक्के का इस्तेमाल किया जाता है। आस्था के तौर पर जब किसी अपराधिक व सामाजिक परंपराओं को तोड़ने वाले व्यक्ति को सामजिक बहिष्कार किया जाता है तो ऐसे में उसका हुक्का पानी बंद कर देना सर्वमान्य है। जो उत्तर प्रदेश, हरियाणा व राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में सामान्यत लागू है।
न्यायिक चौपाल या पंचायत में भी हुक्के का इस्तेमाल किया जाता है। आस्था के तौर पर जब किसी अपराधिक व सामाजिक परंपराओं को तोड़ने वाले व्यक्ति को सामजिक बहिष्कार किया जाता है तो ऐसे में उसका हुक्का पानी बंद कर देना सर्वमान्य है। जो उत्तर प्रदेश, हरियाणा व राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में सामान्यत लागू है।
हुक्के की बनावट पर भी समय समय पर विकास कर
उन्हें और सुंदर और आकर्षित बनाने की कवायत में कई आकार-प्रकार के हुक्कों का
निर्माण प्रचीन काल से देखा गया है।
हुक्के के प्रमुख हिस्से नेचा, कुफली, मुंहनाल, गट्टा, पेंदा, तवा तथा चिलम है। पहले
हुक्के मिट्टी व लकड़ी के बनाये जाते थे, मगर आधुनिकता के युग में ये
पीतल और लोहे के रूप में भी उपलब्ध है। मिट्टी और लकड़ी वाले हुक्कों में पानी
ज्यादा देर तक ठंडा रहता था, अत:
उसे बार-बार बदलने की आवश्यकता नहीं होती। हुक्का भरना भी एक कला
है। हुक्का भरने के लिए पहले हुक्के पर रखी चिलम में तंबाकू डालकर उस पर मिट्टी का
एक छोटा दीया ढ़ककर आग डाल दी जाती है तथा गर्म होने पर तंबाकू जलने लगता है और कश
लगाने पर धुआं पानी में फिल्टर होकर दूसरी नली से सेवनकर्ता के मुंह तक पहुंचता
है। धुंए में मिश्रित निकोटिन पानी के प्रभाव में आने के बाद मनुष्य के स्वास्थ्य
पर कम भी प्रभाव डालता है।
यूं तो ध्रूम्रपान सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, मगर 'हुक्के' का ध्रूम्रपान सेवन
का एक व्यक्तिगत स्वरूप माना जाता है। जोकि वातावरण को कम प्रभावित करता है। हुक्का
खुली जगह पर बैठकर पिया जाता है। अत: घर परिवार के अन्य
व्यक्तियों के प्रभाव से यह एक गंभीर दूरी बना कर रखता है। जो छोटे बच्चों या घर
परिवार के सदस्यों के स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित है। हुक्के में इस्तेमाल किए
जाने वाला तंबाकू बनाना और एक निश्चित मात्रा में उसे इस्तेमाल करना एक कला है। अलग-अलग अवसरों पर या भिन्न-भिन्न उम्र
वर्ग के व्यक्तियों के लिए अलग मात्रा में तंबाकू इस्तेमाल किया जाता है। ताकि सभी
की सेहत को ध्यान में रख कर मेजबानी की जा सके। गांवों में इस्तेमाल होने वाला देशी तंबाकू गांव में ही प्रचीन नुकते से तैयार किया
जाता है। जिसमें तम्बाकू के पौधे को सुखाकर मुस्सल से कूटा जाता है,
उसमें गुड़ या गुड़ से बनी लाट मिलाई जाती है, जिससे निकोटीन का
प्रभाव कम किया जा सके।
इतिहास के कुछ पन्ने पलटे या बुजुर्गों की बातों
पर गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि हुक्का राजाओं, महाराजों, अमीर,
बादशाहों की बैठकों से जुड़े थे। अकबर और जहांगीर के राजदरवारों में हुक्का पीने
के लिए बड़े आयोजन किए जाते थे। हुक्के के बिना महफिलें सूनी मानी जाती थी। हुक्का
सब की पसन्द होता था। हुक्के को गरम करने, तैयार करने के लिए
राजमहलों में विशेष नौकर हुआ करते थे। ना-ना प्रकार के हुक्कों का इतिहास हमारे प्रचीन में मिलता है जिसमें हुक्के मिट्टी, लकड़ी, चांदी, सोना आदि धातु से बनाएं
जाते थे। मुगल काल में
हुक्कों पर नक्काशी का काम होता था। इतिहास की किताबों
में बने चित्र इसका प्रमाण देते है। प्राचीन हुक्के आज भी संग्रहालयों में
संग्रहित हैं। जिनकी शोभा देखे नहीं बनती। राजा अपनी पसन्द के अनुसार हुक्के और
तम्बाकू का प्रयोग करते थे। तम्बाकू में खमीरा, अनानास, सेब, लोंग, जाफरान, अंगूर व खुशबू के
लिए गुलाब, चंदन, मोगरा और फूलों के सूखे पत्ते खुशबू के लिए
इस्तेमाल किए जाते थे। हुक्का सामूहिक जीवन शैली का अनुपम उदाहरण है।
हुक्का समाज को जोड़ने का महत्वपूर्ण काम करता है। हुक्का एक नशा या व्यसन नहीं
एक शिष्टाचार है। हुक्का जीवन में भाईचारा, एकता, सहयोग की परम्परा का विकास करता है। हुक्के के सहारे चौपाल में बैठ छोटे-मोटे झगड़े सुलझ जाते हैं।
सजा के तौर पर हुक्के का पानी पिलाएं जाने का रिवाज आज भी भारतीय समाज में मौजूद है।
बुजुर्गों का मानना है कि हुक्का निरोगी है।
इसके इस्तेमाल से कफ जैसी गंभीर बिमारी व पाचन तंत्र को दुरुस्त करने का देशी
नुकता कहा जाता है। घौसीपुर निवासी किसान मंगत बताने है कि त्योहारों में बड़े-बड़े हुक्के इस्तेमाल में
लाए जाते थे। गंगा स्थान,
दशहरा, होली, ईद व शादी के अवसरों पर हुक्के का
इस्तेमाल आम बात थी। सभी बिरादरी के लोग एक साथ भाईचारा, प्रेम और सौहार्द के साथ
त्योहारों की तैयारियों की बात करते थे। आज भी शादी-विवाह के दौरान बिना हुक्का सिलगाएं ग्रामीण शादी फीकी लगती है। भारतीय हुक्के
विदेशों तक लोकप्रिय है। पर्यटक भारत आते हैं और यहां से देशी हुक्का लेकर जाते
हैं। समय के बदलाव के साथ
हुक्के की गुडगुडाहट ने भी एक तीर्व परिवर्तन की करवट ली है,
जो कि आज आधुनिक जगत में हुक्का पार्लर के रूप में जानी जाती है। शहरी आबादी भी अब
हुक्के की शौकीन है। लेकिन गांव के देशी हुक्के की आन,
बान और शान अलग ही है। ग्रामीण परिवेश में जितनी इज्जत बैठक
के सिराने को दी जाती है। उतनी ही इज्ज़त हुक्के के प्रथम कश को समान रूप से दी
जाती है। इस मायने में ग्रामीण हुक्का शहरी हुक्के से कई गुना शुद्ध और पवित्र
माना गया है। हुक्के को मौज-मस्ती का भी प्रतीक माना गया है जो कि ग्रामीण बोली में उक्त रूप से प्रस्तुत
है।
कामी चल दिया काम कू, हुक्का लीना साथ। आग सिलगती देखकर, फूल के हो ग्या
गुफ्फा,
काम जाए सो जाए पहले पिएंगे एक चिलम हुक्का।।
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