चंद दिनों पहले ‘सूचना का अधिकार’ अधिनियम की सातवीं वर्षगाँठ मनाई गई।
साथ ही यह भी उजागर हो पाया कि दुनिया के इस विशालकाय लोकतंत्र में भ्रष्टाचार को रोकने
और समाप्त करने की दिशा में एक अति महत्वाकांछी कानून अपने उद्धेश्यों को पूरा करने में कहां तक सिद्ध
हो सका है ? यदि हम इस अधिकार की प्रतिष्ठा और
प्रभावोत्पादकता को और ओजस्वी बनाना चाहते है तो सूचना का अधिकार अधिनियम कानून
अपनी कसौटी पर कितना खरा उतर पाया है इसका आँकलन करना अब अनिवार्य हो गया है। एक
बड़ा प्रश्न यह भी है कि हमें इस कानून को किस दिशा की ओर ले जाना चाहते हैं।
भारत सरकार द्वारा नागरिकों हेतु, लोक सेवकों के कार्य में पारदर्शिता एवं जवाबदेही को प्रोत्साहित करने के
लिये ''सूचना का अधिकार अधिनियम 2005'' का कानून बनाया गया। इसके अंतर्गत कोई भी नागरिक लोक सेवक के अधीन उपलब्ध
जानकारी देख या प्राप्त कर सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि
सूचना का अधिकार अधिनियम भारत सरकार द्वारा बनाया गया एक
सशक्त कानून है, जहाँ एक ओर यह कानून हर भारतीय नागरिक को, किसी भी सरकारी संस्था से
प्रत्यक्ष रूप से सूचना प्राप्त करने का अधिकार देता है वहीँ दूसरी ओर यह कानून
सरकारी अधिकारियों को जवाबदेही के लिए भी मजबूर करता है। इसमें लोक सेवक के
द्वारा रोके गये अथवा उनके अधीन किसी भी जानकारी को प्राप्त करने का हक सूचना का
अधिकार प्रदान करता है। जिसमें कार्य का निरीक्षण, दस्तावेज, अभिलेख नोट्स/निष्कर्ष अथवा दस्तावेजों/अभिलेखों की प्रमाणित प्रति प्राप्त
करना प्रमाणित सामग्री का नमूना प्राप्त करना शामिल हैं। कोई भी नागरिक हिन्दी,अंग्रेजी
तथा स्थानीय भाषा में निर्धारित शुल्क के साथ लिखित आवेदन देकर आवश्यक जानकारी प्राप्त
कर सकता है। प्रत्येक लोक प्रशासन विभाग विभिन्न स्तरों पर एक केन्द्रीय सहायक लोक
सूचना अधिकारी पदस्थ हैं जो नागरिकों को सूचना प्रदान करने के लिये आवेदन स्वीकार
करते हैं। सभी प्रशासकीय इकाई/कार्यालय के केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी नागरिकों को
आवश्यक सूचना प्रदान करने की व्यवस्था करते हैं। सूचना के लिये प्राप्त आवेदनों को
30 दिन के अंदर सूचना देकर अथवा अनुरोध
अस्वीकार कर देना आवश्यक है।
इस कानून का उद्देश्य नागरिकों को
अधिकार संपन्न बनाना, सरकार की कार्य प्रणाली में
पारदर्शिता तथा उत्तरदायित्व को बढ़ावा देना, भ्रष्टाचार को
कम करना तथा लोकतंत्र को सही अर्थों में लोगों के हित में काम करने में सक्षम
बनाना है। इस अधिनियम ने एक ऐसी शासन प्रणाली सृजित की है जिसके माध्यम से
नागरिकों को लोक प्राधिकारियों के नियंत्रण में उपलब्ध सूचना तक पहुंचना सहज हुआ है,
लेकिन इसकी कार्यप्रणाली पर अभी भी एक बड़ा प्रश्नवाचक चिह्न अंकित है जो कि कुछ
विशेषज्ञयों के गले नहीं उतरता। क्योंकि यह लोगों को कोई नया अधिकार
नहीं देता, यह केवल उस प्रक्रिया का उल्लेख करता है कि हम कैसे सूचना मांगें, कहाँ से मांगे, कितना
शुल्क दें आदि। इस सूचना के अधिकार को 9 राज्य सरकारें पहले ही राज्य कानून पारित
कर चुके है। जिनमें जम्मू कश्मीर, दिल्ली, कर्नाटक, तमिलनाडु, राजस्थान, मध्य
प्रदेश, महाराष्ट्र, गोवा और असम शामिल हैं । आरटीआइ प्रत्येक
नागरिक को शक्ति प्रदान करता है कि वें सरकार से कुछ भी पूछे या कोई भी सूचना मांग
सकते हैं, किसी भी सरकारी निर्णय की प्रति ले सकते हैं।किसी भी सरकारी दस्तावेज या
कार्य का निरीक्षण कर सकते है, किसी भी सरकारी कार्य के पदार्थों के नमूने प्राप्त
कर सकते हैं। मात्र 11 विषयों को छोड़कर। फिर भी न जाने क्यों सरकारें इस कानून से
डरतीं हैं कि इस कानून के बन जाने के बाद सूचना मांगने वाले आवेदनों की बाढ लग
जाएगी और कार्यप्रणाली ढप हो जाएगी। 65 से अधिक देशों में कानून लागू है। इन सभी में आरटीआइ अर्जिया
सीमित ही रही कारण चाहे जो भी हो। सरकारी तंत्र को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अर्ज़ी डालने में समय, मेहनत व संसाधन लगते हैं जो कि उद्देश्य को
ध्यान में रखते हुए जनता सूचना चाहती है। यदि आवेदन की बात की जाए तो पता चलता है
कि दिल्ली में 60
से अधिक महीनों में 120 विभागों में 14000 अर्जियां दाखिल हुईं। यानि 2 से कम
अर्जियां प्रति विभाग प्रति माह। क्या हम कह सकते हैं कि दिल्ली सरकार में आरटीआइ
अर्जियों की बाढ़ आ गई? यूएस सरकार को 2003-04 के दौरान
अधिनियम के तहत 3.2 मिलियन अर्जियां प्राप्त हुईं। यह उस तथ्य के बावजूद है कि
भारत से उलट, यूएस सरकार की अधिकतर सूचनाएं नेट पर
उपलब्ध हैं और लोगों को अर्जियां दाखिल करने की कम आवश्यकता होनी चाहिए। लेकिन ऐसे
में यूएस सरकार अधिनियम को समाप्त करने का विचार नहीं कर रही है। इसके उलट वे
अधिकाधिक संसाधनों को इसे लागू करने में जुटा रहे हैं। जिसके लिए गत वर्ष, 32 मिलियन यूएस डॉलर इसके क्रियान्वयन में खर्च
किए गए। लेकिन भारत जैसे देश में आरटीआइ अधिनियम के क्रियान्वयन में खर्च किये गए
संसाधन क्या सही खर्च होंगे?
यूएस जैसे अधिकांश देशों ने यह पाया है कि वे अपनी सरकारों को पारदर्शी बनाने पर
अत्यधिक संसाधन खर्च कर रहे हैं। लेकिन वहां पर खर्च लागत उसी वर्ष पुनः उस धन से प्राप्त
हो जाती है जो सरकार भ्रष्टाचार व गलत कार्यों में से कमा लेती है।
एक जनहित
याचिका को आधार बनाते हुए सुप्रीम कोर्ट (भारत सरकार की सुप्रिमो न्यायपालिका) की
खंडपीठ ने सूचना के अधिकार के संदर्भ में गत 13 सितंबर को एक ऐसा फैसला सुनाया, जिस पर देश के
बौद्धिक क्षेत्रों में बड़ी बहस छिड़ गई। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि केंद्र और
राज्यों में जो सूचना आयोग है, वे न्यायिक और प्राय: न्यायिक कार्य करते हैं। उनकी
संरचना भी अदालतों जैसी है, इसलिए इनमें उन व्यक्तियों की
नियुक्ति होनी चाहिए, जिनकी पृष्ठभूमि कानून से संबंधित हो। इस
फैसले पर आरटीआइ कार्यकर्ता आश्चर्य और असमंजस में हैं। उन्हें इस बात का विश्वास है
कि यदि इस तरह का कुछ नया संशोधन किया गया तो दैनिक मामलों के निपटारे में देरी
होने लगेगी। खासकर अगर सूचना आयुक्तों की संख्या में इजाफा न किया गया तो समस्या
गंभीर हो सकती है। गौरतलब है कि सीआइसी को प्रत्येक माह लगभग 2500 शिकायतें और अपीलें मिलती हैं, जिनमें से तकरीबन1900
का निपटारा समय पर कर दिया जाता है। लेकिन इस तरह लगभग 600 मामले लंबित रह जाते हैं। यह स्थिति अकेले सीआइसी की है और अगर इसमें
राज्यों के लंबित मामलों को भी जोड़ लिया जाए तो हजारों मामले हर माह लंबित हो
जाते हैं। जाहिर है, ऐसे में केंद्र व राज्यों के स्तर पर
अतिरिक्त आयुक्तों की परम आवश्यकता है। वर्तमान में आयुक्त जो भी हैं उन्में कुछ
सूचना आयुक्त ऐसे नियुक्त हो गए हैं, जो अपने काम को अच्छी
तरह से नहीं जानते। यहां पर उनकी योग्यता पर मेरा प्रश्चवाचन नहीं है। कई मामलों
में देखा गया है कि अपने अधिकार क्षेत्र के मुद्दों को भी वें नहीं निपटा पाते,
क्योंकि उनके पास कानून के प्रावधानों की व्याख्या करने का पर्याप्त
अनुभव नहीं है। लेकिन यह समस्या इस वजह से नहीं है कि फिलहाल सूचना आयोग में
रिटायर्ड न्यायाधीश नहीं बैठे हैं। बल्कि इस वजह से है कि सूचना आयुक्त नियुक्त
करने के नियम को बहुत अधिक खुला और विस्तृत रखा गया है। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट
का फैसला था कि नियुक्ति कानून, विज्ञान, समाजसेवा, प्रबंधन, पत्रकारिता
आदि में अनुभवी लोगों की नियुक्ति की जा सकती है। ऐसे में जरूरत आरटीआइ के
नियुक्ति नियम में संशोधन और स्पष्टता की है, न की आयोग में
रिटायर्ड न्यायाधीशों की।
शैलेष गांधी (पूर्व सूचना आयुक्त) का कहना है कि सूचना का अधिकार लगभग सभी शक्तिशाली लोगों को चुनौती देता
है। इसलिए इसके सामने कुछ गंभीर खतरे हैं। इनमें सबसे बड़ा खतरा सूचना आयोगों से
ही है। इसकी बड़ी वजह यह है कि सात साल पुराने इस कानून के कई मामले सूचना आयोगों
में दो-तीन सालों से लंबित पड़े हैं। यदि यही सिलसिला जारी रहा तो अगले पांच
वर्षों में इस तरह के लंबित मामलों की अवधि तीन से पांच साल हो जाएगी। ऐसे में आम
आदमी का इससे मोहभंग हो जाएगा और आमजन इससे दूर हो जाएंगे। एक और बड़ा खतरा
न्यायिक प्रणाली है। कई महत्वपूर्ण आदेशों पर स्टे हो जाता है।
जिस तरह से अदालतें काम करती हैं उससे एक मामला पांच से दस साल तक लटक जाता है। शक्तिशाली सरकारी महकमे और सत्ताधारी
लोग इसी तरह अपने मामलों के निर्णयों पर स्टे लेते रहे तो इससे आरटीआइ पर खतरा
स्वाभाविक है।
अरुणा रॉय
(सामाजिक कार्यकर्ता) कहती है कि देश को आजादी
मिलने के बाद अब तक सूचना का अधिकार कानून ही ऐसा हथियार है जिसने आम नागरिक को यह
अधिकार दिया कि वह प्रशासन में अपनी संप्रभुता के उपयोग और दुरुपयोग पर नैतिक रूप से
सवाल खड़ा कर सके। वोट करने का अधिकार जरूरी था, लेकिन सरकार की जवाबदेही की मांग के लिए पर्याप्त नहीं था। सूचना के
अधिकार से इस पूरी प्रक्रिया को एक कदम और आगे ले जाया गया। इसने सरकार और नागरिक
के बीच के रिश्ते की व्यापक व्याख्या की। इस कानून का सबसे यादगार आयाम यह है कि
इसे सभी वर्गों, जातियों और क्षेत्रों द्वारा इस्तेमाल किया
जाता है। बिना किसी भेदभाव के सभी लोग सूचनाएं मांग कर पंचायत से पार्लियामेंट तक
प्रगतिशील तरीके से सरकारी जवाबदेही सुनिश्चित करते हैं। हालांकि इन दिनों यह
कानून कई चुनौतियों से जूझ रहा है। इनमें आयुक्तों की नियुक्ति, आयोग और अपीलीय अधिकारियों के पास लंबित मामले, संशोधनों
के माध्यम से इस कानून को कमजोर करने के लगातार किए जा रहे सरकारी प्रयास और
सीबीआइ जैसे संगठनों का इस कानून के दायरे से बाहर रखने जैसे प्रावधान शामिल हैं। आजकल
सूचना के अधिकार मांगने वाले और कार्यकर्ताओं के सामने एक बड़ी चुनौती उनकी जान-माल
को खतरे को लेकरा भी है। अराजक तत्व और माफिया द्वारा ऐसे कई सूचना के सिपाही मारे
जा चुके हैं। नेशनल कंपेन ऑफ पीपुल्स राइट्स टू इंफार्मेशन के अनुसार पिछले दो साल
के अंदर करीब 150 आरटीआइ कार्यकर्ताओं पर हमले किए जा चुके
हैं। सरकार द्वारा शीघ्र ही इन लोगों की सुरक्षा का प्रबंध किया जाना चाहिए।
आरटीआइ कार्यकर्ताओं को चाहिए कि वें सामूहिक रूप से खुद के एक सुरक्षा तंत्र के
तहत काम करें और उन लोगों की सुरक्षा करें जो अपने हितों की रक्षा के लिए ताकतवर
मुहिम चला रहे हैं। इनकी सुरक्षा के लिए शीघ्र ही व्हिसल ब्लोअर विधेयक पारित किया
जाना चाहिए।
आरटीआइ के
इस्तेमाल से सरकार की कार्यप्रणाली जगजाहिर हो चुकी है। योजना आयोग में शौचालय
मामले से लेकर खाद्यान्नों के जरूरतमंदों तक सरकार की कलई खोलने में यह सहायक
सिद्ध हुआ है। पूरे देश में यह कानून न्याय मांगने का एक हथियार साबित हुआ है। कई हाई कोर्ट और सक्षम अथॉरिटी के बाद अब छत्तीसगढ़
विधानसभा भी आरटीआइ एक्ट की धारा 27 और 28 द्वारा दी गई शक्तियों का दुरुपयोग किया। इन धाराओं में राज्य सरकार या
सक्षम प्राधिकारी को अपने नियम बनाने की शक्ति दी गई है। इसका उपयोग करके ही
छत्तीसगढ़ विधानसभा ने आरटीआइ की फीस 10 रुपये से बढ़ाकर 500
रुपये कर दी है। इसी तरह प्रति पेज कॉपी कराने की दर दो रुपये से
बढ़ाकर 15 रुपये कर दी गई। ऐसे में रोटी के लिए संघर्ष करता
आमजन को इस लड़ाई में दूर खड़ा करने का यह फैसला सूचना मांगेवालों को भिन्न लाईन
में खड़ा कर देने के लिए बाध्य कर देता है कि पहले आप आर्थिक रूप से सम्पन्न हो
बाद में सूचना मांगे। फिर भी कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) ने 26 अप्रैल 2011 में एक सर्कुलर जारी कर सभी राज्यों से आग्रह
किया कि 10 रुपये की आरटीआइ फीस के मामले में सभी समानता
रखें।
एक गंभीर
समस्या यह भी है कि सरकारी विभाग आरटीआइ को दोयम दर्जे पर रखते हुए जनसूचना
अधिकारी के पद पर विभाग के प्रमुख अधिकारी के बजाय ज्यादातर क्लर्क स्तर के कर्मचारी
को बैठाते है। जिनके द्वारा वांछित सूचनाएं न दे पाने पर अपीलों की संख्या में
लगातार बढ़ोतरी हो रही है। क्लर्क स्तर के ये कर्मचारी अपीलीय अधिकारियों के आदेश
भी नजरअंदाज करते हैं। सूचना आयोग के पास शिकायतें बढ़ने का यह भी एक बड़ा कारण
है। अपीलीय अधिकारियों को सिर्फ सुनवाई का अधिकार है, किसी जन सूचना अधिकारी पर जुर्माना या उसे सजा देने का
नहीं।
सूचना का
अधिकार केवल सार्वजनिक जीवन से जुडे़ आर्थिक, प्रशासनिक
एवं संवैधानिक तथ्यों को उजागर करने का ही औजार नहीं है, बल्कि
यह जनप्रतिनिधियों को मिले जनादेश के सही क्रियांयन को विनियमित करने की संवैधानिक
संकल्पना भी है। सीडब्ल्यूजी घोटाले में सुरेश कलमाडी, 2जी
स्पेक्ट्रम घोटाले में ए.राजा, गृहमंत्री चिदंबरम और प्रधानमंत्री कार्यालय तक की
भूमिका को विवादों में ले आने वाला वित्त मंत्रालय का पत्र इसी सूचना अधिकार
अधिनियम के कारण सार्वजनिक हो सका। हाल में उनके कई मंत्रियों द्वारा स्वेच्छा से
सार्वजनिक किया गया संपत्ति का ब्योरा भी इसी की एक कड़ी के रूप में देखा जाना
चाहिए, लेकिन सवाल यह है कि इस प्रकार के बदलाव क्या इस
कानून को मजबूत बना पाएंगे? सरकार द्वारा लगातार सूचना के अधिकार कानून पर
नए सिरे से बहस की जरूरत पर बल देते रहना और रह-रहकर संशोधन की इच्छा को जाहिर
करना कांग्रेस और संप्रग की सूचना कानून से पैदा परेशानियों को ही रेखांकित करता
है। अब सवाल यह है कि इस कानून में संशोधन क्या कानून को अधिक सशक्त और पारदर्शी
बनाने के लिए है या इसकी धार को कुंद करने के लिए ? इसके
अलावा एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह भी है कि आरटीआइ कार्यकर्ताओं द्वारा लगातार सूचना
कानून में व्याप्त खामियों को दूर करने के प्रावधानों की मांग करते रहे हैं। सूचना
अधिकार अधिनियम में सूचना उपलब्ध कराने की समय-सीमा 30 दिन
काफी ज्यादा है, वहीं ब्रिटिश स्वतंत्रता कानून में यह
समय-सीमा महज 20 दिन ही है। चूंकि नौकरशाही की मंशा विभागीय
सूचनाओं को किसी के साथ साझा नहीं करने की रहती है, इसीलिए 30
दिन में भी वह गलत जवाब देकर आवेदक को अपील की एक लंबी प्रक्रिया
में उलझाने की कोशिश में रहते हैं। अपील और द्वितीय अपील की इस प्रक्रिया में
कभी-कभी एक साल या उससे भी अधिक का समय लग जाता है। फिर सूचना अधिकारी के दोषी पाए
जाने पर उस पर लगने वाला आर्थिक दंड भी काफी कम है, जिस कारण
कई अधिकारी इस कोशिश में भी रहते हैं कि सूचना की अपेक्षा आर्थिक दंड ही दे दिया
जाए। सामान्य नागरिक अक्सर इस लंबी प्रक्रिया से थककर सूचना प्राप्ति के अपने
अभियान को बीच में ही छोड़ देते हैं।
सूचना
अधिकार अधिनियम को अधिक सशक्त बनाने के लिए सबसे जरूरी है कि सूचना उपलब्ध कराने
की समय-सीमा को कम किया जाए। साथ ही अपील की प्रक्रिया को सरल और कम समय लेने वाला
बनाते हुए दंड के प्रावधान को सख्त करते हुए सूचना अधिकारियों के लिए सूचना उपलब्ध
कराने की बाध्यता भी निर्धारित की जाए। इसके अलावा सूचना आवेदक की सुरक्षा का सवाल
और प्राप्त सूचना से सामने आने वाली अनियमितताओं और भ्रष्टाचार को दंडित करने की
व्यवस्था का आभाव भी इस मजबूत कानून की धार को कमजोर करता है। सूचना अधिकार कानून
लोकतंत्र को अधिक पारदर्शी और मजबूत बनाने में अहम भूमिका अदा कर सकता है। बशर्ते
सूचना आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर इसे स्वायत्त संस्था का रूप दिया जाए और कानून
में ऐसे सुधार किए जाएं, जिससे प्रशासनिक निर्णयों की
सूचना सुगमता से आम आदमी की पहुंच में हो सके। सूचना अधिकार कानून के माध्यम से
सरकार के कामकाज में आने वाली पारदर्शिता को सरकार या उच्चाधिकारियों के काम में
हस्तक्षेप नहीं, बल्कि मजबूत होते लोकतंत्र और लोकतंत्र की
मजबूती में आम आदमी की भूमिका के रूप में देखा जाना चाहिए। साथ ही जन-जन तक इस
अधिकार को ले जाने के लिए इस कानून को और अधिक सरल, सुगम और त्वरिक बनाने की
आवश्यकता है।
- सुरेंद्र कुमार अधाना
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