संचार क्रांति के इस
दौर ने मनोरंजन की परिभाषा ही बदल डाली है। जहां नित नए उन्नत साधनों के बीच हम खुद
को मनोरंजित होए बिना रह नहीं सकते। वहीं ग्रामीण परिवेश आज स्वयं को उन सभी
पुराने मनोरंजन के साधनों से स्वयं को जोड़े हुए हैं। जो पुराने समय से यू ही चलते
आ रहे है या यू कहें की बड़ो की देन है। सदियों से यू ही बहुत से साधन मनोरंजन के
रूप में लोगों की जीवन क्रिया में शामिल हैं। मनोरंजन करने, या उसे इंजाय करने का
एक विशेष महत्व है। जो जगह, स्थान, परिवेश के अनुरुप बदलता और परिवर्तित होता रहता
है। जो कि मानव जीवन के सुकुन भरे पल का एक विशेष पड़ाव है। मनोरंजन समय, मौसम,
आयु वर्ग, त्योहारों पर भी भिन्न-भिन्न तरीकों से खेला और पसंद किया जाता है। जहां
तक समय की बात है तो ग्रामीण जीवन में गर्मियों का अलग ही महत्व है। ऐसे में
बच्चों की स्कूल की छुट्टी, गन्ना की खेती करने वाले प्रदेशों में लोग गर्मियों
में फसल की बुआई के बाद के बचे समय में किसान, ग्रामीण मनोरंजन के नए साधनों से
दो-दो हाथ करते देखे जा सकते हैं। जो कि फसल बड़ी होने तक सतत् चलता रहता है। “रघुवीर, किसान गांव-जानी
(मेरठ) ने बातचीत में बताया कि किसानों और ग्रामीणों का (जो गांव में ही छोटा-मोटा
काम करते है जैसे दर्जी, किराना) का दोपहर का अधिकांश समय ताश खेलने, लूडो, सांप
सीढ़ी, रेडियो सुनने में जाता है। साथ ही इसी समय में आराम भी किया जाता है
क्योंकि किसान का कार्य दिन-रात चलता रहता है। ऐसे में मनोरंजन और कब मनोरंजन नहीं
करना है इसका समय निश्चित नहीं है”। इसी समय एक बहुत बड़ा वर्ग
दोपहर में जाग रहा होता है। वह है बच्चा पार्टी जो कि कभी भी बंध कर नहीं रह सकता।
गांव में जिन सभी का बचपन बीता होगा। सभी इस बात को भली-भाति जानते पहचानते होंगे।
बच्चों के अनेकों मनोरंजन के साधन और खेल हैं । वह जब चाहे मन बना लेते है और निकल
पड़ते है। खेलने, मौज-मस्ती करने, जिन गांवों से नहर या बड़ी नदी होती है वहां के
युवाओं में पानी में नहाना, पानी में छलांग लगाना, कूदन या घंटों पानी में डूबे
रहना ज्यादा पसंद किया जाता है। इसके अलावा बच्चों के अनेक मंनोरंजन के ऐसे साधन
है जो कि अजीबों गरीब भी है और मनोरंजन से भरपूर भी। उनमें गिल्ली-डंडा, कंचे, पर, ताश
(बच्चों द्वारा महनत से इक्ट्ठा किए हुए), क्रिकेट, खुड्डी-खुड्डा, कॉय-लकड़ियां,
भागने-छूने, छिपने-ढूंढने, खो-खो आदि ऐसे अनेकों खेल हैं जो कि हर उस सक्श को
ग्रामीण परिवेश में खींच कर उसके बचपन तक ले जाता है जो कि किसी ना किसी रूप में
गांव से जुड़ा हुआ हैं। मेरठ शहर के करीब 21 किलोमीटर दूर बसा गांव सिवाल में
स्थित भौले-की-झाल पर रोज़ कई सौ की संख्या में युवाओं का जमावड़ा पानी में गौते
लगाते हुए, इट्ठलाते हुए देखा जा सकता है। जो कि वहां के लोगों के लिए खाली समय
में मनोरंजन का साधन के रूप में देखा जा सकता है। कुछ युवा आपस में प्रतियोगिता
करते हुए भी देखे जा सकते है। जिसमें तैराकी, ऊंची कूद, पानी में देरतक सांस रोकना
आदि रोमांचक और खतरों से भरे खेल खेलने की ललक युवाओं को देखी जा सकती है।
भौले-की-झाल पर न केबल आस-पास के गांवों के लोग ही नहीं दूर दराज के क्षेत्रों से
भी युवा यहां मनोरंजन के लिए आते है। मेरठ शहर से नजदीक होने के यहां के युवा वॉटर
पार्क न जाकर भौले-की-झाल जाना ज्यादा पसंद करते है। यह स्थान आस-पास बसने वाले
लोगों के लिए सस्ता और कम समय में ज्यादा रोमांचित और पसंदीदार स्थान के रूप में
है।
इसी समय कुछ महिलाएं
आराम कर रही होती है, तो कुछ काम में वयस्त होकर बातचीत करते हुए अपने दोपहर का
समय इंजाय करती है। कुछ महिलाएं मनोरंजन से दूर खेते में पुरुषों से साथ काम काज
में हाथ-बटाते हुए महनत करती हुई देखी जा सकती है। जिन परिवारों में महिलाएं खेतों
में कार्य नहीं करतीं वह घर में बहुत से कामों में सहभागिता दे किसी अन्य कार्य
में वयस्त रहती हैं। गांव की परिभाषा हम शहरी लोगों की नजरों से देखने में बहुत ही
सुखद लगती है। हम बहुत ही अच्छा महसूस होता है। लेकिन वास्तविक धरातल पर गांव के
जीवन, महनत, लगन, त्याग, प्रेम और सुंदरता के पीछे बहुत से ऐसे राज़ है जो कि एक
किसान परिवार या किसान परिवार के सदस्य होने के नाते आप समझ सकते हैं। यदि हम गांव
उसके परिवेश और मनोरंजन को सोचे तो मनोरंजन जैसी चीज़ गांव में बच्चों के लिए सबसे
ज्यादा होती है, उसके बाद घर में कामकाज करने वाली महिलाएं, उसके बाद पुरुष और बाद
में वह महिलाएं आतीं है जो खेतों में कामकाज करतीं है। क्योंकि खेतों में काम काज
करने के बाद घर के सारे काम काज ज्यादातर उसी महिलाए के कंधों पर ही होता है। यदि
कोई दूसरा हाथ बटाने के लिए ना हो तो ऐसे में काम काज से निपटे के बाद ऐसा कोई भी
सक्श नहीं होगा जो आराम नहीं करना चाहेगा। लेकिन कुछ आज के ग्रामीण परिवेश में
परिवर्तन देखने और महसूस करने को मिले है। कि कुछ परिवारों में जहां खेती-बाडी का
काम या तो कम है या केवल मर्द ही करते है वहां की महिलाएं खाली समय में टीवी देखती
नज़र आई हैं। यह संचार क्रांति का ही प्रभाव है जो कि घर-घर तक पहुंच गया है। कुछ
महिलाएं हाथ में नैय (छोटे आकार का हुक्का) लेकर गुडगुड-गुडगुड करतीं और नए जमाने
के फैंनशी गाने हुक्का बार को आधुनिकता से जोड़ने के पीछे के भ्रम को तोड़ती नजर
आतीं हैं। बाबा-दादा भी कुछ पुराने किस्सों को एक दूसरे से सांझा करते हुए.... खाट
पर बैठ कर... हाथ में बीड़ी और हुक्के का पाईप लेकर ईंजाय करते हुए देखे जा सकते
हैं। ये कुछ ऐसी चीजें है जो कि एक गांव से दूसरे गांव तक समान रूप से देखी और
महसूस की जा सकती हैं।
- सुरेंद्र कुमार अधाना, स्वतंत्र पत्रकार, मेरठ
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