पॉश ने कहा था कि “सबसे बुरा होता है सपनों का मर जाना”, सपने जीवित रहने चाहिए ! उनके जीविका चलती रहनी चाहिए। सपनों की सांसो में ऊर्जा, शक्ति, स्फूर्ति का संचार होते रहना चाहिए। सपनों को महनत की जरूरत होती है। कुछ सपने बिना महनत के भी इंजाए किए जाते है। लेकिन सपनों को बिना महनत इंजाए करना भी सभी के बस की बात नहीं। इन पर किसी का ज़ोर नहीं, ये कब आते है कब जाते है किसी को कानों कान ख़बर नहीं देते। खोजी पत्रकारिता भी इन्हें छूने की जुगत तक नहीं कर पाती है। सपना देखना पर भी कॉपी राइट होना चाहिए ताकि कोई किसी का सपना न चुरा सके। सपना देखना मौलिक अधिकार होना चाहिए ताकि सभी को सपने देखने का समान अवसर प्राप्त हो सके। डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने सपनों के संदर्भ में कहा है कि सपने वह नहीं जो सोते वक्त देखे जाए, सपने तो वह है जो सोने ना दे। हम भी इन्हीं सपनों की बात कर रहे है, समाज में हर वर्ग का, व्यक्ति विशेष का अपना सपना होता है। जिसे वह पाना, चाहता है जीना चाहता है। इंजाए करना चाहता है। लेकिन सपनों की दुनिया से दूर होता युवा अपने को वर्तमान समय में अलग थलग पा रहा है। जीवन की गुत्थी जटिल होती सी दिखाई दे रही है।
वर्तमान परिपेक्ष्य में सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि युवा सपने ज्यादा देखता है, उन पर अमल नहीं करना चाहता, सपनों को साकार तो करना चाहता है लेकिन परिश्रम नहीं करना चाहता। सपनों में वह खुद महरूम होना चाहता है, महनत किराए पर या किस्तों पर करना चाहता है। युवा सपने साकार करने में नाकाम हो रहा है। क्यूं हो रहा है बड़ा प्रश्न है ? हर बार महनत करने के लिए एक शुभ मुहरत की आवश्यकता महसूस करता युवा किस तरह वास्तविक दुनिया या मंजिल से कैसे दूर हो जाता स्वयं वह खुद भी नहीं जानता।
अब सपने देखने की सुविधाएं बढ़ गई है। सपने हाई-टेक हो गए है। धरातल से युवाओं का संबंध कोसों दूर है। जिसकी हकीकत बनने और बनाने के लिए एक लम्बी प्लेनिंग की जरूरत महसूस की जाने लगी है। कम्पटीशन का दौर है। शॉट-कट के इस जमाने में प्लेनिंग भी मोबाइल, लेपटॉप और आइपॉड पर अपडेट हो रही है। जैसे आज गणित की गुत्थियों को हल कर युवाओं ने मोबाइल को जेब में रख लिया है। कुछ युवा सुविधाओं का लाभ पा हजारों-लाखों प्रतियोगियों को दिन-प्रतिदिन पीछे छोड़ते हुए बहुत दूर निकल चुके है। उनकी उम्मीदे, इच्छाएं भी असीमित है। जो न तो इंग्ति की जा सकती है और न ही व्यक्त।आज सुविधाएं मुट्ठी में है। ऐसे में युवाओं को सुविधाओं से दूर कैसे रखा जा सकता है। लोगों की मुट्ठी में दुनिया को देने का सपना साकार करते हुए रिलांस करोड़ो- अरबों की कमाई कर चुका है। आज सब कुछ सबका है। युवाओं को नए आइडिया सुझाता आइडिया, प्रतियोगिता की दौड़ में ऐडी-चोटी का जोर लगा आगे निकल जाना चाहता है। पूजीवाद के इस दौर में सब अपने-अपने जुगत में लगे है लोगों की जिंदगी को इंजाए करने के हजारों विकल्प बाजार सुजा रहा है। लोगों को इंजाय कराने के लिए बिग टीवी, टाटा स्काए लाईफ को झिगालाला कराने में लगे है। जो युवा इस बाजारीकरण का हिस्सा है। उनके सपने सजोने और बुनने में यह भी कही हद तक सहयोग देने में सफल साबित हो रहे है।तेजी से बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था में युवाशक्ति का बड़ा योगदान है। जो कि किसी भी देश की सबसे बड़ी सम्पत्ति मानी जाती है। भारत में युवाओं का प्रतिशत भारतीय जनसंख्या में सबसे ज्यादा है। कहा जाता है कि किसी भी देश की कायाकल्प बदलने में युवाओं का अहम योगदान होता है। वरन भारत में भी यह स्थिति अपने चरम पर है जहां युवा अपने मनोबल से दुनिया जीतने के जुगत में हैं।प्रतिभाग दिखाने के हजारों मंच युवाओं का इंस्तेजार कर रहे है। हजारों युवा अपने नाम का डंका बजा मां-बाप की तपस्या का उदाहरण बन रहे है। हजारों युवा देश सेवा कर अपने प्राणों के बलिदानों की आहुति देने को तैयार है। इन सब के बाद भी युवाओं की एक बड़ी जनसंख्या की मंजिल, रास्ता कुछ नहीं है। जिन्हें आज की ख़बर नहीं कल का पता नहीं, आर्थिक मंदी से जूझता युवा गलत रास्तों का आश्र्य लेना क्यूं चाहता है ? अच्छा-बुरा में फर्क करना क्यों नहीं चाहता ? यह बड़ा प्रश्न है ?यदि किसी युवा से पूछा जाए की आप किसे अपना आर्दश मानते है तो ज्यादातर युवा खिस्यानी बिल्ली की तरह खम्भा नौचते हुए नजर आएंगे। आज आर्दशता का अभाव है। युवा फेसबुक, ट्वीटर, लिंकइन, गूगल प्लस से तो दोस्तों की सूची बढ़ा रहे है लेकिन आपसी दूरियां बढ़ रही हैं। लोगों की संवेदनाओं का चीर-हरण हो रहा है। भावनाएं सिमट रही है। जानकारी के इस अंबार में विकिलिक्स जैसे ई- सुविधाओं ने सूचनाओं को सब तक पहुंचा दिया है। अब लोग सूचनाओं, आकड़ों को अपने मस्तिष्क में संजोकर नहीं रखना चाहते उनका हिसाब किताब पर बात नहीं करता चाहते। तकनीकि ने युवाओं को मानसिक चतुरता में तो त्वरिक कर दिया है लेकिन उन्हें शारीरिक अपंग बना दिया है, जिसके प्रयोग से शारीरिक क्षमता/ शक्ति का ह्रास हो रहा है।
पूजीवांद के इस दौर में दिखावेपन का बोल-बाला है। युवा की आंखों में बड़े-बड़े सपने है। बड़ी उम्मीदे है और इन उम्मीदों को पूरा करने की ओर बढ़ते छोटे-छोटे कदम कब काल कोठरी तक जा पहुंचते है, यह उन्हें खुद भी पता नहीं चलता। युवा रुवानितय की दौड़ में अंधे हुए नंगे पैर ऊचाइयों को छूने की चाह में सरपट दौड़ रहा है। जिनकी ना कोई मंजिल है ना कोई ठिकाना। आज आधी आबादी से ज्यादा युवा दिशाहीन है, उन्होंने न तो मार्गदर्शन देने वाला है और न कोई मंजिल की राह में रौशनी दिखाने वाला। इस दुर्दशा के बड़ी हकदार अशिक्षा है जो कि ज्यादातर घर-परिवार में देखी जा सकती है। सरकार लोगों को साक्षर कर रही है, लेकिन जनसंख्या नियंत्रण पर जोर न के बराबर। यह एक बड़ा कारण है जिससे असमानताए बढ़ रही है। देश जब आजाद हुआ था तब प्रति व्यक्ति आमदनी 249.60 रुपये थी। आज प्रति व्यक्ति औसत आय 53,331 रुपये वार्षिक है। आम आदमी के हित में राजनैतिक पृष्ठभूमि कहा तक युवाओं को मुख्यधारा से जोड़ रही है, इसका जीता जागता उदाहरण ये आंकड़े हैं। आज का युवा किस दिशा में जा रहा है इसका आइना मीडिया के सामने है। रोज़ ऐसे सैंकड़ों उदाहरण लिए जा सकते हैं जहां लूट-पाट, डकैती, चोरी, दंगा-फसाद, आपसी रंजिश आदि को देखे तो स्पष्ट नहीं होता कि युवाओं में असंतोष की भावना का संचार क्यों हो रहा है ? कारण चाहे जो भी हो, यह हमारे देश के भविष्य और युवा शक्ति के लिए गलत संकेत है। इस नूतन ऊर्जा को हमें एक साकारत्मक दिशा की ओर ले जाना होगा। तभी हम सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकतें हैं। - सुरेंद्र कुमार अधाना
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