Friday 11 August 2017

मुख्यधारा की ख़बरों का संकट

आजकल अखबारों और टीवी चैनलों को देखने पर मन-मस्तिष्क पर उदासीनता छाने लगी है। ख़बरों को देखे तो उनकी दुनिया और उसकी धूरी सिमटने लगी है। टेलीविजन पर करोड़ों की संख्या में से केवल सीमित लोगों, सीमित विषयों और सीमित क्षेत्रों की बात होने लगी है। राजनीति, क्राइम, पेज-3 और सरकारों के वादे ही आजकल टीवी स्क्रीन पर दौराए जा रहे है। चुनाव का कवरेज इतना बढ़ गया है, लगता है कि पूरा देश ही वोट डालने निकल पड़ा हो। ख़बरों का केंद्रिकरण होने लगा है। जन-सामान्य की स्थितियां टीवी चैनलों में गोण होने लगी है। राजनीति फण्डे इतने बढ़ गए है कि लगभग हर दिन कही ना कही धरना प्रदर्शन, विरोध, शक्ति प्रदर्शन, ज्ञापन सौपे जा रहे है। स्थिति ऐसी लगती है कि कहीं शांति का माहौल है ही नहीं, हर तरफ कलह, मायूसी, दर्द दिखाई दे रहा है।
समाचारों चैनलों में अच्छे लोगों की छवि दिखना बंद हो गई है। कई-कई घंटों के कार्यक्रम हेवानियत और औछी सोच वाले लोगों को दिखाया जा रहा है। यह शायद सामाज का वह पक्ष है जो दुषित होकर गल-सड़ रहा है और ऐसी सड़न को हर घर देखना नहीं चाहता। नाकारात्मक ख़बरों की बाढ़ सी आ गई है। हर रोज कई अख़बार के पन्ने और टीवी के कई घंटे इसी में व्यर्थ हो जाते है। अगले दिन फिर वहीं चीज़ दौहराई जाती है। हर रोज हेवानियत से भरी ख़बरें आती है छोटी-छोटी बच्चियों पर अत्याचार किया जा रहा है। लड़कियों के साथ ही एक आम आदमी खुद को बहुत ही असहाय और मजबूर महसूस कर रहा है। ऐसे में विचार किया जाना चाहिए कि हम कैसे समाज और कौन से दौर से गुजर रहे है जो इतना भी सभी को स्वतंत्रता नहीं दे पा रहा है कि सभी खुली हवा में सांस ले सके। अपनी इच्छानुसार काम कर सके। मुझे लगता है ऐसे में न्यायपालिका को तेजी से काम-काज करने की आवश्यकता है ताकि नाकारात्मकता पर विराम लगाया जा सके साथ ही मीडिया की भी अपनी अहम भूमिका है जिससे वह समाज में सुधार ला सकती है।

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