मजदूर शब्द से ही गुलामी की बू आती है। ऐसी बू जिसमें आदमी विशेष का कोई महत्व नहीं रहता है। चाहे वह पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़। आर्थिक मजबूरी ने लोगों को मजबूर बना दिया है। जब तक कोई व्यक्ति आर्थिक रूप से अपने को स्वतंत्र नहीं कर लेता है। तब तक वह घुट-घुट कर अपनी जीविका चलाता है। निजी क्षेत्रों ने इसे और बढ़ाया है। ऐसे में व्यक्ति विशेष बिना किसी राय के जो आदेश मिलता है उसका पालन करता रहता है। रोजगार करते हुए कोई सुविधा मिल जाए तो ठीक है, कोई नई उम्मीद करना शायद उसको नसीब नहीं। कारण बाल-बच्चे और परिवार की जिम्मेदारी बहुत सी जनता को खुलकर सोचने के लिए शायद स्वतंत्रता नहीं देती। भारत जैसे देश में लोगों की मंशा कुछ ऐसी है कि यदि कोई व्यक्ति किसी मजबूर व्यक्ति को रोजगार देता है भी है तो ऐसे बहुत कम लोग होंगे जो उसकी मजबूरी का फायदा नहीं उठाना चाहेगा।
बहुत से लोगों को वाह-वाही, जय-जयकार,जी-हजूरी ही पसंद है, यदि उनके सामने कर्मचारी नहीं झुका, दुआ सलाम नहीं की तो ऐसे में नौकरी की छुट्टी समझों।
बहुत से लोगों को वाह-वाही, जय-जयकार,जी-हजूरी ही पसंद है, यदि उनके सामने कर्मचारी नहीं झुका, दुआ सलाम नहीं की तो ऐसे में नौकरी की छुट्टी समझों।
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