Wednesday 20 November 2019

ये प्रदूषित हवा हमारी हवा ना निकाल दे...


पूरा देश जब 2019 की दीपावली मना रहा था, उस समय बहुत से पर्यावरणविद्, समाजशास्त्री, जागरूक जनता चिंता में थी कि फिर वही होने वाला है जो पिछले तीन चार सालों से होता आ रहा है। भारत देश का केन्द्र या यू कहे कि दिल वालों की दिल्ली की सांस फूलने वाला है। यह एहसास दिल्ली और दिल्ली से सटे क्षेत्रों ने पहले भी झेल लिया है और महसूस भी कर लिया है लेकिन इसके परिणाम इतने भयानक हो सकते है या यह दिल्ली के आस-पास स्थिति स्थानों तक जा सकता है इसकी चिंता शायद राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा के दिल्ली से सटे जिलों के वासियों ने सोची नहीं होगी। यह मुद्दा केवल दिल्ली से जुड़ा हुआ नहीं है जब कोई ख़बर विश्व के दूसरे सबसे आबादी वाले देश की बात हो तो साथ ही ऐसे क्षेत्र की बात हो जहां जनसंख्या घनत्व जरूरत से ज्यादा हो तो ऐसे में चिंता बढ़ जाती है साथ ही विदेशी पटल पर भी इसका गहरा असर होता है।
जब हम प्रदूषित जल, प्रदूषित थल से निकल कर प्रदूषित वायु तक जा पहुंचे तो समझ लीजिए कि अब जीविन आसान नहीं है। जीवन को विकसित करने और उसे बनाएं रखने के लिए पहले हम चिंतित नहीं थे लेकि अब हमे जीविका को बचाने और जीने के लिए विकल्प खोजने होंगे।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि हम अपनी पीढ़ी को प्रदूषण विरासत में देकर जाने वाले है जिसके लिए उन्हों न केवल अपना तन, मन, धन लगाना होगा बल्कि कई पीढ़ी इसके विकल्पों और उस पर काम करने की बड़ी कीमत भी चुकानी होगी। ईटली देश के बहुत ही खूबसूरत शहर वेनिस में एक सप्ताह में तीन बार बाढ़ आना और शहर का लगभग 5 फीट तक जलमग्न हो जाना । इसबात का मजबूत इशारा है कि यदि पर्यावरण के साथ और अधिक खिलवाड़ किया गया तो परिणाम बहुत भयानक होंगे और हमारी आपकी पीढ़ी के साथ ही होंगे।
पर्यावरण में प्रदूषण घौलने और कार्वन उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए विश्व स्तर पर लगभग 25 सालों से गंभीर कार्य किए जा रहे है, लेकिन इस आधुनिकता और उन्नत जीवन शैली ने हमारे आसपास के आवरण को अपनी जरूरत के हिसाब से उम्मीद से ज्यादा दोहन किया है और किया जा रहा है। जिसका परिणाम है कि हमारे द्वारा उत्पन्न की गई समस्याएं हमारे सामने आकर खड़ी हो गई है जिसका खामियाजा सम्पूर्ण धरा को भुगतना होगा, बस शुरूआत और अंत में थोड़ा वक्त लग सकता है।
मानव जाति इस धरा पर सबसे अधिक समझदार मानी गई है और शादय हम ही जिसके इसके गंभीर भविष्य के परिणामों की भनक है फिर भी हम दिन-प्रति-दिन अपनी धरा को दूषित करते जा रहे है। सरकारें को जिस गंभीरता से इन मुद्दों पर काम करना चाहिए शायद वह नहीं हो पा रहा है जन मानस की मंशा को समझते हुए और दूसरे विकल्पकों का ध्यान रखते हुए हमें धरा की रक्षा के लिए दिन रात काम करना होगा तभी संभव है कि हम आने वाली त्रासदी से बच सके।

Monday 23 September 2019

ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले , ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है

प्रोफेसर प्रभुदत्त खेरा दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली में समाजशास्त्र के प्रोफेसर रहे। वे सन् 1983 में बिलासपुर आने पर अमरकंटक व अचानकमार अभयारण्य शोधार्थियों के साथ घूमने के लिए पहुंचे थे। यहां वे बैगा आदिवासियों के जीवन विशेषकर बच्चों के जीवन को देखकर व्यथित हो उठे, तभी उन्होंने यहां रहकर अपना शेष जीवन काल इनकी सेवा के लिए बिताने का संकल्प ले लिया। अगले साल सेवानिवृत्ति के पश्चात वें यहां आ गए। वे अचानकमार अभयारण्य के लमनी, छपरवा, सुरही आदि गांवों में पैदल घूम-घूमकर बच्चों को साफ-सफाई से रहने के लिए संदेश देते रहें। बच्चों को नहलाना, कपड़े पहनाना, बाल संवारना, उनके बढ़े  नाखून कॉटना, मच्छरदानी बनाना, पेड़ लगाना, पढ़ाई के लिए किताबें देना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। वे इन सब कार्य में खुद को संलग्न पा इतना खुश होते थे मानों वह अपने परिवार के बच्चों के साथ अपना जीवन जी रहे हो। उन्हें इतना स्नेंह और प्यार देते मानों वह बच्चों के अपनें हो। 
प्रो. प्रभुदत्त खेरा                     फोटो गूगल के सौजन्य से
 आदिवासियों में जागरूरता फैलाने के लिए उन्होंने महिलाओं और बच्चों को आधार बनाया ताकि परिवार की अच्छे से देखभाल कर सके उन्होंने पौष्टिक भोजन, जीवन को जीने के तरीके, कम सुविधाओं के साथ तालमेल बैठाने के अनेकों उदाहरण प्रस्तुत कर लोगों में आत्मविश्वास को बढ़ावा दिया ताकि महिलाएं और बच्चें सशक्त हो सके।  इसके लिए वें सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने के लिए सरकारी महकमों और कार्याल्यों से भी सम्पर्क साध कर जन मानस को मिलने वाली सुविधाओं को दिलाने में सदैव आगे रहते थे। वह एक झौला सदैव अपने पास रखते थे, जिसमें आम तौर पर अपने लिए छोटा-मोटा सामान, देसी जड़ी-बुटियां व दूर-दराज के इलाके के लोगों के लिए मलेरिया, बुखार, दस्त आदि की दवाएं होती थीं। 

वें अधिकांशत: पैदल ही यात्रा करते थे रोज 15 से 20 किलोमीटर की पैदल यात्रा आम थी। वे लमनी क्षेत्र में एक झोपड़ी में रहते थे। उन्होंने अपनी पेंशन की अधिकांश रकम भी इन्हीं आदिवासियों के कल्याण पर खर्च कर दी। ऐसा बताया जाता है कि कुछ छात्र जो पढ़ाई में बहुत अच्छे थे उन्हें उन्होंने पेंशन की राशि से उच्च शिक्षा ग्रहण करने के प्रोत्साहित किया, उन्होंने लमनी में अपने खुद के प्रयासों से बच्चियों के लिए स्कूल खोला है, जिसके लिए समाज के लोगों ने उनका साथ दिया और उनके प्रयासों से प्रभावित होकर उनके लिए आर्थिक मदद कर स्कूल को चलाने में मदद् की।
उन्होंने विवाह नहीं किया, उनका मानना था कि लोगों के जीवन में कुछ आएं न आएं उनके चेहरे पर खुशी आनी चाहिए जो व्यक्ति का जीवन बदल देती है
कराची (पाकिस्तान) के मशहूर लेखक, कवि जौन एलिया साहब ने क्या खूब लिखा है........कि
मैं भी बहुत अजीब हूँ इतना अजीब हूँ कि बस। ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं।।

Sunday 15 September 2019

आज दूरदर्शन ने पूरे किए 60 साल

15 सितंबर 1959 में आज ही के दिन सरकारी प्रसारक के तौर पर दूरदर्शन की स्थापना हुई थी। भारत में दूरदर्शन का पर्याय टेलीविजन ही हैं। जबकि टेलीविजन शब्द को देखे तो वह दो शब्दों से मिलकर बना है टेली + विजन, जिसका अर्थ है दूर के दृश्यों का आँखों के सामने उपस्थित होना या दूर बैठे दर्शन करना है। तकीनिकी रूप से देखे तो दूरदर्शन रेडियो में प्रयुक्त होने वाली प्रोद्योगिकी का ही उन्नत रूप है। विश्व में टेलीविजन का सबसे पहला प्रयोग ब्रिटेन के जॉन एल. बेयर्ड ने 1925 में किया था।
भारत में टेलीविजन के इतिहास की यात्रा दूरदर्शन के इतिहास से ही शुरू होती है। आज भी दूरदर्शन का नाम सुनते ही अतीत की बहुत सी पुराने यादें ताज़ा हो जाती है है। आज भले ही टी.वी. चैनलस पर कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई हो, लेकिन दूरदर्शन की पहुंच को टक्कर दे पाना अभी भी किसी के बस की बात नहीं है। दूरदर्शन ने लोगों के घरों में नहीं दिल में राज किया है। जिसकी घुसपैठ घरों तक नहीं सीधे दिल पर तस्तक देने वाली है। आएंये याद करते है उन कुछ गौरव पलों को उन तिथियों को जो हमारे टीवी के इतिहास को ताज़ा करतीं हैं।
दूरदर्शन की स्थाुपना साल 15 सितंबर 1959 को हुई थी। दूरदर्शन से 15 अगस्त 1965 को प्रथम समाचार बुलेटिन का प्रसारण किया जो आज-तक जारी है। 1975 तक यह सिर्फ 7 शहरों तक ही सीमित था बाद में धीरे- धीरे इसके विस्तार और विकास को और तीर्वता प्रदान एसआईटीई SITE प्रोजेक्ट के माध्यम से मिली। दूरदर्शन की विकास यात्रा प्रारंभ में काफी धीमी रही लेकिन 1982 में रंगीन टेलीविजन आने के बाद लोगों का रूझान इस ओर ज्यादा बढ़ा। इसके बाद एशियाई खेलों के प्रसारण ने इस दिशा में क्रांति ही ला दी और इसी साल न केवल रंगीन टीवी आया साथ ही राष्ट्रीय प्रसारण भी प्रारंभ हुआ जो सबसे बड़ी उपलब्धी थी। बाद में हम पाते है कि दो राष्ट्रीय और 11 क्षेत्रीय चैनलों के साथ कुल दूरदर्शन के कुल 21 चैनल प्रसारित होते हैं, 14 हजार जमीनी ट्रांसमीटर और 46 स्टूकडियो के साथ यह देश का सबसे बड़ा प्रसारणकर्ता बन जाता है। हम लोग, बुनियाद, रामायण, महाभारत जैसे कार्यक्रमों ने दूरदर्शन की लोकप्रियता को बुलंदियों पर पहुंचाया साथ ही जन-जन को टेलीविजन से जोड़ने का काम किया।
एक दौर था जब दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम को देखने के लिए लोग दूर दूर से आते थे। छोटे से पर्दे पर चलती बोलती तस्वीरें दिखाने वाला बिजली से चलने वाला यह डिब्बा लोगों के लिए कौतुहल का विषय था। जिसके माध्यम से देश की कला और संस्कृति को लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाता था। दूरदर्शन सरकारी प्रसारण सेवा का एक अभिन्न अंग था।
दूरदर्शन ने देश में तब तहलका मचा दिया था, जब 1986 में श्री रामानंद सागर की 'रामायण' और श्री रवी चोपड़ी की ‘महाभारत’ की शुरुआत हुई। प्रसारण के दौरान हर रविवार को सुबह देश भर की सड़कों पर कर्फ्यू जैसा सन्नाटा पसर जाता था। इस कर्यक्रम को देखने के लिए लोग की भारी संख्या में भीड़ उमड़ जाती थी। लोग सड़कों पर उस समय यात्रा नहीं करते थे। ये बात आज के युवाओं को भले ही अटपटी लगे लेकिन ये सत्य है कि इस कार्यक्रम के शुरु होने से पहले लोग अपने घरों को साफ-सुथरा करके अगरबत्ती और दीपक जलाकर रामायण का इंतजार करते थे और एपिसोड के खत्म होने पर बकायदा प्रसाद बांटते थे। यह टीवी का प्रेम और आदर वाली भावन केवल दूरदर्शन ने ही पैदा की जो शायद भुलाई नहीं जा सकती।

Friday 13 September 2019

हिन्दी भाषा की अपनी सीमाएं

जरा गौर करेंगे तो गली, मौहल्ले, नुक्कड़ आदि की दिवारों पर आप अंग्रेजी सीखने और चंद घण्टों में आप को पारंगत करने के दावे ठौकने वाले वाक्य आकृषित रंगों में ऊभरे हुए अक्षरों में आसानी से मिल जाएंगे। कुछ लोग उनसे प्रभावित होकर.. उनसे जुड़ भी जाते है और अपनों को अंग्रेजी में होशियार समझने की दौड़ में शामिल हो जाते है। इन सब से हमारी आंशिक पूर्ति तो हो जाती है, लेकिन संपूर्ण पूर्ति नहीं हो पाती है, सम्पूर्ण पूर्ति के लिए या तो हम पूर्ण रूप से अंग्रेजी को जानना होता है या फिर उस माहौल में रहना होगा जहां अंग्रेजी के बिना आप का काम ही ना चल पाएं। आप को जैसी भी आती है लेकिन आपको काम अपनी टूटी-फूटी अंग्रजी से ही लेना होगा। हम भारतीय ऐसे कामों में अधिक फंसे रहते है जिनसे भविष्य में हमारा चाहे पाला न पड़े लेकिन कुछ भाषाई ज्ञान हमे ढौना ही पड़ेगा।
अधिकांशत: प्रतियोगिताओं में अंग्रेजी का पर्चा भी होता है जो शुद्ध भारतीय/ मांटी के लाल को बहुत परेशान करता है। जिसमें अच्छों-अच्छों का पसीना छूट जाता है लेकिन वहीं जब बात हिन्दी की आती है। तो हम सब एक ही सांस में कहते है, ये भी कोई पेपर है इसे पढ़ने की जरूरत नहीं, ये तो आसानी से हो जाएगा। बाद में पता चलता है कि अंग्रेजी में हाथ तंग था उनमें न. ज्यादा हैं , हिन्दी में कम नम्बर आएं है। ऐसे में हिन्दी को आसान समझकर या दोयम दर्जें का स्थान देकर हम आगे निकल जाते है लेकिन हमारी हिन्दी पीछे छूट जाती है, वर्तमान में हो भी यही रहा है। हम हिन्दी की बिन्दी तक पर ध्यान नहीं देते।
मुझे तो इंग्लिश नॉवल चाहिए। मेरी भी अलमीरा में बहुत से अंग्रेजी नॉवल है जो आज भी पुकार करते है कि उनके ऊपर लगी पेकिंग कोई तोड़े और उन्हें पढ़ ले, लेकिन कुछ हिन्दी के नॉवल आज भी कई लोगों के हाथों से होकर मट-मैले होकर एक हाथ से दूसरे हाथों तक पहुंच रहे है, लेकिन यहां पर प्रश्न यह उठता है क्या वाकै ही हिन्दी नॉवल पढ़े जा रहे है। शायद नहीं ! आज-कल युवाओं की हिन्दी पठन-पाठन की जिज्ञासा कम देखी जा रही है। हिन्दी की सामग्री इंटरनेट पर बढ़ रही है लेकिन प्रकाशन से लेकर बाजार तक हिन्दी की मांग अंग्रेजी के मुकाबले कम है।
इसमें कोई दो राय नहीं की हिन्दी को पढ़ने वाली की कमी हुई है। पढ़ने वाले मिलते है, तो लिखने बाले कम मिलते है। हम अपनी बातों को सोचते तो हिन्दी में हैं, लेकिन उसे प्रस्तुत अंग्रेजी के माध्यम से करना पसंद करते है या अंग्रेजी के ढ़ेर सारे शब्द वाक्य विन्यास के लिए शामिल कर लेते है। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि हम अपने बच्चों को हिन्दीवादी या हिन्दी भाषी बनाना चाहते है। ऐसे बहुत ही कम लोग होंगे। सब चाहते है उनके लाड़ले/लाड़ली अंग्रेजी जरूर जाने चाहे हिन्दी ना आएं। खिटर-पिटर अंग्रेजी में ही करें, क्योंकि भारत जैसे सीमित अवसर वाले देशों में भाषाई, योग्यता, डिग्री न जाने कितनी पात्रताओं के बाद आप को किसी लायत समझा जाता है। नौकरी मिली तो आप लायक नहीं तो नाल....क। अंतिम में उसे अंग्रेजी से बड़ी लड़ाई लड़नी ही है। प्राइवेट स्कूलों की बात करें तो वहां बच्चों के हिन्दी बोलने पर शुल्क तक लगाएं जाते है। यहां पर मंशा चाहे कुछ भी हो लेकिन यह सब छोटे-छोटे कारण है जो हिन्दी को पीछे छोड़ते हैं।
हिन्दी से रोजगार की मार में वृद्धि हुई है। यदि कोई युवा अंग्रेजी जानता है और हिन्दी का जानकार नहीं है तब भी वह हिन्दी भाषी देश में हर नौकरी के लिए काबिल है, लेकिन हिन्दी जानने के बाद करोड़ो काबिल लोग, योग्यता के आधार पर मुख्य धारा से दूर कर दिये जाते है। ये कसूर किस का है नीति निर्माताओं का, हमारे परिवेश का, हमारी भाषा का या खुद हिंदी का ? जवाब कुछ भी हो मुसीबत हिंदी भाषी लोगों की ही है और हिंदी जानने की है।
हमें यह सोचना होगा कि हिन्दी को किस आधार पर ले। कहीं -कही हिन्दी न जानने पर, तो कहीं हिन्दी मात्र की अधिक जानकारी आप को ले डूब्ती है। आप को अपनी भाषा और योग्यता के पैमाने के साथ तालमेल बैठाना होगा। नहीं तो नय्या पार नहीं लग पाएंगी। हिन्दी की अपनी सीमाएं है उन्हें पहचाने और आगे बढ़ने की जरूरत है।

Monday 9 September 2019

प्लास्टिक के अधिक प्रयोग से पनपती समस्याएं

वह दिन दूर नहीं जब हम अपने किए पर पछताएंगे और कहेंगे कि शहरों से अच्छे गांव है और गांवों से अच्छे वह सूदूर क्षेत्र जिनमें शायद जनजातियां ही रहती है। शहरीकरण और हर दिन हमारी बढ़ती मांगों और फैलती अधुनिक बाजार की संकल्पना ने इसे और अधिक घातक बनाने का काम किया है। हम न जाने चाहते और न चाहते हुए कितनी प्लास्टिक और पॉलिथिन अपने घर ले आते है हम भी पता नहीं चलता, क्योंकि हम जिंदगी की उस दौड़ में शामिल है जिसने हमारे जीवन जीने को तो सरल बनाया है लेकिन भविष्य में इसकी सूरत कितनी भयानक होगी। शायद् इसका हमें अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस शहर में हम रहते है उसमें भ्रमण करे और देखे की जो हमारे घरों से निकले वाली गंदगी है वह कहा जा रही है हम दैनिक जीवन में प्रयोग में लाने वाली चीजों के लिए कितनी प्लास्टिक और पॉलिथीन प्रयोग करते है साथ ही उस हम किस स्थान पर छोड़ते है इसका प्रभाव भी हमारे सामने है। आज शायद पृथ्वी का कोई ऐसा कौना बचा होगा जिमें पॉलीथीन या प्लास्टिक की पहुंच ना हो।
स्थिति और अधिक बदतर जब हो जाती है जब यह सुविधाओं से भरी प्लास्टिक का निस्तारण समय से और पूर्ण रूप से न कर लिया जाएं। हमारी जीविका ने प्लास्टिक के प्रयोग को इतना बढ़ा दिया है कि यदि हम आस-पास की चीजों को देखे तो बहुत सी दैनिक इस्तेमाल की वस्तुओं का निर्माण प्लास्टिक से ही हुआ है और जब हम उसमें रखी वस्तु का उपयोग कर लेते है तो उस प्लास्टिक के साथ हमारा कैसा व्यवहार होता है और उसका निस्तारण होता भी है के नहीं हम नहीं जानते।
यदि केंन्द्रिय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एक अध्ययन के अनुसार भारत में प्रतिदिन 25940 टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है। जिसका लगभग 40 प्रतिशत प्लास्टिक कचर फिर से इक्ट्टा नहीं हो पाता है। ऐसे में यह कचरा या तो मिट्टी के अंदर, जमीन के ऊपर या पानी में किसी न किसी रूप में कायम रहता है इसके गलने और सड़का का चक्र बहुत बड़ा होता है ऐसे में यह बचा कचरा भारत जैसे विकासशील देश के लिए बड़ी समस्यां है। इतना ही नहीं जो बड़े शहर है वहां जनसंख्या के बढ़ते घनत्व और अधिक जनसंख्या की मांग के चलते प्लास्टिक में बंद सामान ज्यादा खरीदा जाता है जिसका परिणाम यह होता है कि ऐसे शहरों में कचरा उत्पन्न भी ज्यादा होता है। दिल्ली में 690 टन प्लास्टिक कचर प्रति दिन उत्पन्न होता है। देश में सबसे ज्यादा कचरा उत्पन्न महाराष्ट्र में होता है जो कि चार लाख सत्तर हजार टन के आसपास सालाना कचरा पैदा करता है। जिसका आधिकाशं हिस्सा समुद्र की सतह पर देखा जा सकता है। इसके बाद सालाना अधिक कचरा उत्पादन में गुजरात और दिल्ली का नाम आता है। बड़ी समस्यां यह नहीं है कि कचरा पैदा हो रहा बड़ी समस्यां यह है कि उस प्लास्टिक को किस-तरह से दौबारा एकत्र किया जा सके उसको पुन: किसी रूप में इस्तेमाल किया जा सके। इसके लिए न तो सरकारों के पास कोई ठोक विकल्प है और न ही दूरदर्शिता। बड़ी-बड़ी कम्पनियां अभी की प्लास्टिक के पैकेट में सामान बाजार में बैच रहे है उन पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है क्योंकि यह प्लास्टिक मिट्टी में तो सड़ता है और न ही घुलता है परिणाम यह होता है कि यह मिट्टी की अवशोषित करने की क्षमता को घटाता है जिससे मिट्टी जल अवशोषित नहीं कर पाती है और भू-जल की समाप्ति होनी लगती है।
भारत में 22 प्रदेश ऐसे हैं जिनमें प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई हुई है, लेकिन इनसब के बाद भी प्लास्टिक का प्रयोग रूकने का नाम नहीं ले रहा है। जिसमें सबसे बड़ी समस्यां सरकार के फैसलों को ही गलत ठहराया जा सकता है क्योंकि किसी भी कानून को बनाने से पहले यह विचार जरूर कर लेना चाहिए कि यदि प्लास्टिक बैन होता है तो जनता के पास इसका क्या विकल्प है। क्यां बाजार में विकल्प के रूप में दूसरी चीज़ उपलब्ध भी है के नहीं या स्वयं सेवकों या छोटी-2 इकाइयों को सरकारी मदद् से कुछ विकल्प तैयार कराकर बाजार में उपलब्ध कराए जा सकते है। 05 प्रदेश ऐसे भी है जहां इस बात को अधिक गंभीर न मानते हुए कोई कानून लागूं नहीं है।
सरकारों की बाकी विषयों की तरह इस पर भी गंभीरता दिखानी चाहिए ताकि हम अपने अतीत से शिक्षा लेकर भविष्य में अपनी पीढ़ी को एक सुनेहरा वातावरण देकर जाएं तो वह भी खुली हवां में सांस ले सके, साफ पानी पी सके और अपनी धरा पर गर्व करते हुए उससे प्यार करें।

अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष - 2023

भारत गावों का, किसान का देश है। भारत जब आज़ाद हुआ तो वह खण्ड-2 था, बहुत सी रियासतें, रजवाड़े देश के अलग-अलग भू-खण्डों पर अपना वर्चस्व जमाएं ...