Tuesday 6 March 2012

सामाजिक बदलाव का एक साल.. 2011


समाज का एक बड़ा तबका अपनी जीवनक्रिया, घर-परिवार की जिम्मेदारियों तक सिमट कर रह गया है। न तो उसे बदलाव के प्रयत्न में कोई विशेष रूचि रही है और न ही कोई मंशा लेकिन परिवर्तन की इच्छा हमेशा जहन में सुलगती रही है। किसी एक व्यक्ति की मांग कब समाज की इच्छा या जरूरत बन जाए यह समय और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। फिर भी वर्ष 2011 कुछ कम उतार-चढ़ाव का नहीं वरन् पूरे घात-प्रतिघात तक के किस्सों का साल रहा है।
2005 में सूचना के अधिकार लागू हो जाने पर लोगों ने इसे एक शस्त्र के रूप में समझा, लेकिन धीरे-धीरे इस कानून को तोड़-मरोड़ कर अपने हितों के आगोश में छिपा लिया गया और यह कानून इन दिनों आम लोगों के हितों से दूर ही रहा।
एक दश्क बाद इस वर्ष हुई जनगणना में भारत की जनसंख्या 121 करोड़ और यू पी 21 करोड़ की जनसंख्या का आकड़ा पार कर यूपी जनसंख्य की दृष्टि से अव्वल राज्य रहा। इससे हम जन शक्ति के रूप में तो मजबूत हुए है लेकिन खाद्यान और प्रतिव्यक्ति उपलब्धता पर रोना भी आता है। साथ ही नवम्बर के अंत तक दुनिया के सात अरब के आकड़े पार करने का गौरव भी भारत की भूमि पर अंकुरित हुआ ।
बड़े बदलाव के लिए एक छोटे ओहदे वाले, रालेगण सिद्धी के सुधारक के तौर पर पहचाने जाने वाले अन्ना हजारे, जिन्हें पहले बामुश्किल महाराष्ट्र से बाहर के लोग जानते थे उनका दायरा और प्रभाव सीमित था। इस वर्ष लम्बी छलांग लगा उन्होंने अपने ओहदे को लोकपाल बिल से जोड़ते हुए जन आंदोलन से एक नवीन उर्जा, प्रकाशवान माहौल और एक सापेक्ष स्थिति बया कर लोगों को दिशा देने का कार्य किया है, लेकिन यह कितना सम्भव हो सका है यह एक विचारर्णीय प्रश्न है।
लेखकों, आलोचक और मीडिया कर्मियों ने भी माना है यदि लोकपाल बिल की आवाज अन्ना हजारे ने बुलंद नहीं की होती तो यह ठंडे बस्ते में चला जाता। इतनी ज्यादा तादात, एक बड़ा जन समूह, सम्पूर्ण राष्ट्र का सहयोग और तिहाड़ जेल से बाहर आने पर अन्ना का तेज बारिश में स्टार प्लस के 24 कैमरों से कवरेज कोई छोटी घटना नहीं है। यह जनता के जाग्रत होने की स्थिति को बया करता हुआ जनता के जाग उठने का साल है।
चौ. चरण सिहं विवि के हिंदी विभाग के प्रो. दीनबंधु तिवारी का कहना है कि भारतीय तंत्र और राजनेताओं से आम जन त्रस्त हैं। लोग आज भी दो जून की रोटी के संघर्ष कर रहे है। भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। कुछ लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते ही नहीं तो कुछ लड़ते-लड़ते थक जाते है और हाथ कुछ नहीं लगता। अन्ना की आंधी आने का कारण भी यही रहा अन्ना ने आम लोगों की जुबा बोली जिसमें भ्रष्टाचार से त्रस्त लोगों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और उम्मीद खो बैठे लोगों में एक किरण जगी जिसमें लोगों का एक बड़ा तबका शामिल हो गया और आंदोलन को बुलंद कर रहा है।
अब सब स्पष्ट हो गया है कि सरकार की नीति और भारत का भविष्य आम लोगों की राय में शामिल होते हुए भई जनतंत्र और लोकतंत्र की भावना से परे है फिर भी यह साल समाज की सोच और विचार दोनों के बदलाब का साल कहा जा सकता है।
-           सुरेद्र कुमार अधाना

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