Saturday 10 August 2019

पर्यावरण की कोख, गोद और आवरण को हम गटर बना रहे

हम मानव जाति बड़े ही कमाल के व्यक्ति है। हम सबसे ज्यादा समझदार, पढ़े-लिखे, सभ्य, प्रगतिशील और उन्नति की ओर बढ़ते हुए दूरदर्शी व्यक्ति समझे जाने वाले इस सम्पूर्ण धरा पर एकलौते जीव है। हम इतने समझदार माने और समझे जाते है कि हम न केवल अपने गृह धरती की भौगोलिक स्थिति ही नहीं बल्कि दूसरों गृहों पर भी जीवन खोजने की जुगत में है ताकि भविष्य के लिए नई उम्मीदें और संभावनाएं तलाशी जा सके। आए दिन कई करोड़ों खर्च की नई खोजे, नई तकनीकि के पीछे पूरे विश्व के भिन्न-2 देश करोड़ो-अरबों पैसे लगा रहे है, ताकि वह तकनीकि में दूसरे देशों को पिछाड़ सके। इसी क्रम में हम न केवल प्राकृतिक बल्कि कई अरबों टन अप्राकृतिक मल पीछे छोड़ रहे है जिसकी कई देशे ने अच्छी पहल की है, लेकिन अधिकांश विकासशील देश इस क्रम में अपने को पंक्ति में कही बहुत पीछे खड़ा हुआ पा रहे है। जहां एक ओर विकसित तकनीकि न होने के कारण, दूसरा देश की अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत नहीं कि वह ऐसे कार्य पर पैसा लगा सके।
ताज के पास बहती यमुना नदी में पड़ा कूड़ा, फोटो -गूगल/NICKGARBUTT.COM





















































 
  
भारत जैसे विकासशील देश, अपनी अर्थव्यस्था की दौड़ में तेजी से वैश्विक स्तर पर बढ़ता देश, सरकारी आकड़ों में विश्व में परचम लहराने को तत्पर देश व समुचित विकास की ओर तीर्व गति से बढ़ता देश उन छोटी-छोटी बुनियादी चीजों के लिए भी जुगत करना देखा जा सकता है, विकास के पैमानों की धुरी साबित होता है। यहां बड़े और छोटे शहरों के छोड़ की समस्याओं को यदि हम छोड़ भी दे तो जो शहरी समस्याएं पहले शहरों में हुआ करती थी अब वह दूर दराज के गांवों में भी पनपने लगी है। हवा, पानी और धरा तीनों को प्राकृतिक रूप से लूटते सरकारी व गैर सरकारी संगठन भविष्य की संचय नीधि से अवगत होते हुए भी, धरती की जीवन लीला को इस तरह से घेर रहे है जिसके भयंकर परिणाम आने संभव है। गांव का पानी का जलस्तर गिर रहा है, वहा जो गंदगी पहले ना के बराबर हुआ करती थी, अब शहर का मल दूरदराज के गांवों के आसपास फैका जा रहा है, गांव में सरकारों की मदद से शौचालय बन गए लेकिन उस शोच की निकासी की व्यस्था नहीं है, शहर की फैक्ट्रियों को आस-पास के गांवों में लगा दिया है। ऐसे में जल स्तर तो घटा ही है, साथ ही पानी की गुणवत्ता भी खराब हुई है। सरकारें लोगों से अपील करती है कि व्यवस्थाओँ को दुरूस्त करने के अनेकों ऊपाएं हैं लेकिन जब जनता के पास उसे दुरूस्त करने का जरिया ही नहीं, तो मजबूर व्यक्ति सरकार की ओर ताकता रहता है। आज भी सरकारें जल, हवा और धरा के लिए सजग तो है लेकिन काम काज को लेकर उनकी नीयत स्पष्ट नहीं है। कई सालों से पॉली बैग को बंद करा चुकी सरकारी आज भी उसे बंद नहीं करा पाई है। जब सरकारें जनता से टेक्स जमा करा सकती है तो ऐसे में नियमों को क्यों तार पर रखा जा रहा है। सब कुछ जनता के हवाले करने से काम नहीं चलता है। सरकारों के अपनी जरूरत के हिसाब से नहीं पर्यावरण की सेहत को ध्यान में रखते हुए कदम उठाने होंगे ताकि धरा की सेहत को दुहरूत किया जा सके।

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