यह ब्लॉग एक विचारधारा है। जिसमें लेखक की अनुभूति है, विचार है, भावनाएं हैं, संवेदनाएं हैं और अधिकारों को सचेत करने की आशा है।
Wednesday, 5 August 2020
Sunday, 10 May 2020
ये कैसा दौर है मौला !
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Photo- Google image/outlook |
कोई भूखा है, कहीं किसी नन्हें बच्चों ने जान गवाई है।।
मटमैला जन भटक रहा है, टुकड़े-टुकड़े जुटाने को।
कोई बिल्ख रहा है, कई दिनों से भूख मिटाने को।।
ईश्वर थोड़ा रहम करो, ज़रा देखों इस धरा की ओर।
हम सब है तेरे बंदे, कुछ थोड़ा ही सही ज़रा रहम तो करो।।
© सुरेंद्र कुमार अधाना
* कोरोना वाइरस से लड़ता भारत के दौरान की कविता इस अंदाज़ में प्रस्तुत इसलिए की गई है क्योंकि हाल ही में पाक के साथ सीमा पर लड़ाई, भारत के अंदर छत्तीगढ़ में नक्सलीय हिंसा में कई जवानों और भारत में कोरोना संकट से जुझते जवान और डाक्टर्स की टीम में से भी बहुत से हमारे अज़ीज शहीद हो गए है साथ ही पलायन की इस दुखद घड़ी ने मजदूरों, गरीब व बेसहारा जनमानस को छोटे-छोटे बच्चें से उनके हाथ का निवाला तक छीन लिया है।
अंग्रेजी हकूमत का अत्याधिक अत्याचार ही बन गया, उनका ताबूत
अंग्रेजों ने जिस स्तर पर चाहा हिन्दुस्तान के जनमानस का शोषण किया, जिसका गुस्सा न केवल उत्तर भारत प्रांत में, बल्कि समूचे हिन्दुस्तान में पनप रहा था।
10 मई 1857 का दिन उस विस्फोट का दिन है जो बारूद
अंग्रेजों के दिन-प्रतिदिन बढ़ते अत्याचारों के कारण पैदा हो रहा था। यह सर्व-विदित
है कि हिन्दुस्तान में अंग्रेज केवल व्यापार करने आएं थे। हिन्दुस्तान की आन्तरिक
व्यवस्था और अलग थलग पड़ी रियास्तों और हिन्दुस्तान के कुछ लालची रियायतों नें
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ हाथ मिला कर पहले अपनी हथेली, फिर हाथ, फिर शरीर, फिर
अपने रियासत ही नहीं वरन इसका खामियाजां सम्पूर्ण राष्ट्र को चुकाना पड़ा।
हिन्दुस्तान में गोरो के लालच ने यहां पनाह और न केवल पनाह आंतरिक कल्ह, आंतरिक
कमजोरी को परखने के बाद अपने विचार बदल लिए और फिर व्यापार, खेती के बहाने देश को
ही हड़प लिया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि गोरो ने हिन्दुस्तान के भोले लोगों का
फायदा उठाया वरन उनका सबकुछ हड़प भी लिया।
वह हिन्दुस्तान के इतिहास में काला दिन के रूप में ही है जब अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान की धरा पर पैर रखा क्यों कुटिल लोगों के आने हानि ही होती है। जो हिन्दुस्तान को लगभग 200 वर्षों तक चुकानी पड़ी।
इस वर्ष 2020 जब सम्पूर्ण विश्व नोबल कोरोना #COVID19 की चपेट में है ऐसे में भारत के योगदान को भूला नहीं जा सकता है। हिन्दुस्तान ने बहुत ही संकट झेले है और उन्हें पार भी किया है।
आप फिर वही दिन 10 मई 2020 हमें याद आता है कि ठीक 163 साल पहले आज ही के दिन मेरठ से आज़ादी के पहले आंदोलन की शुरूआत हुई थी। जो बाद में पूरे राष्ट्र में फैल गया। 85 सैनिकों के विद्रोह से क्रांति की जो चिंगारी निकली वह धीरे-धीरे ज्वाला बन गई। यह सब एक दिन का साहस नहीं था, वरन् इसकी तैयारी लम्बे अर्शे से की जा रही थी, जरूर थी सही वक्त की। इस रणनीति में नाना साहब, अजीमुल्ला, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तांत्या टोपे, मौलवी अहमद उल्ला शाह और बहादुर शाह जफर आदि जैसे क्रांतिकारी नेताओं ने विभिन्न स्तरों पर तैयारिया कर रखी थी। साथ ही विश्व स्तर पर गोरो के खिलाफ एक समूचा विरोध धीरे-धीरे उफान ले रहा था जिसका वर्णन विश्व इतिहास में देखा जा सकता है।
बाद में गोरो द्वारा सैनिको को दिए गए गाय और सूअर की चर्बी से बने कारतूस को चलाने से मना करने पर 85 सैनिकों के कोर्ट मार्शल की दुखद घटना ने क्रांति की तत्काल भूमिका तैयार कर दी थी। कोर्ट मार्शल के साथ उनको 10 साल की सजा सुनाई गई। बताते है कि 10 मई को रविवार का दिन था। रविवार होने की वजह से अंग्रेजी सिपाही छुट्टी पर थे। कुछ सदर के इलाके में बाजार गए थे। शाम करीब साढ़े पांच बजे क्रांतिकारियों और भारतीय सैनिकों ने ब्रितानी सैनिक और अधिकारियों पर हमला बोल दिया। सैनिक विद्रोह में सदर, लालकुर्ती, कैंट और रजबन के अलावा अन्य क्षेत्रों में 53 से अधिक अंग्रेजों की हत्या कर दी ।
भारतीय पुलिस में कोतवाल सदर धन सिंह भी मौके पर पहुंचे जिन्होंने वहा का मौर्चा संभाला। यह क्रांति रातों रात आस-पास के प्रदेशों तक पहुंच गई जिसका कारण रहा कि मेरठ से शुरू हुई क्रांति दिल्ली समेत, पंजाब, राजस्थान, बिहार, असम, तमिलनाडु व केरल तक फैल गई। बाद के दिनों में अंग्रेजी हकूमत के पैर उखड़ने लगे, रोज़ खबर आने लगी की अलग अलग प्रदेशों में अंग्रेजी हकूमत को लोग डट कर विरोध करने लगे है, अपने अधिकारों के लिए खड़े होने लगे है। बाद के वर्षों में कई ऐसे नाम पर देखते है जिन्होंने फ्रंट पर आकर लड़ाई लड़ी, लेकिन इस लड़ाई में कितने ऐसे गुमनाम सैनिक, नेता, नेत्रित्वकर्ता, मजदूर, किसान, बेकसूर जनता लड़ाई की भेंट चढ़ गए। हमे आज़ादी तो मिली लेकिन भारत माता का दामन लाल होकर, जो लाखों को लाल मां की गोद में हम सब के खातिर चले गए और गुमनामी की नीद सो गए। आज मातृत्व दिवस पर उन सभी वीर जवानों, मां के लाल को हम शत-शत नमन करते है।
#10_मई_2020
#मातृत्व_दिवस_2020
#क्रान्ति_दिवस_मेरठ
Monday, 4 May 2020
प्रकृति की सुंदरता
चिड़ियां चहचाह रही है, कह रही यह देख।।
इंसान ने यह क्या किया है, सीमा कर ली पार।
जहां से वापस खुद आना, हो गया दुश्वार।।
अब देखे कैसा लग रहा है, यह प्यारा संसार।
जैसे हम रह रहे हो, किसी मानव जंगल के पार।।
सुंदर नदियां झर रही, प्रकृति का स्वच्छ नीर।
मानों जंगल में उत्सव मना रहे हो, पशु, पक्षी और शमशीर।।
दिन अब लगता है सुहाना, राते भी हो गई है गुलज़ार।
यदि मानव हद में रहे तो, कितना सुंदर है संसार।।
यदि मानव हद में रहे तो, कितना सुंदर है संसार।।
© सुरेंद्र कुमार अधाना
#जंगल , #प्रकृति #Nature #चिड़ियां #सुंदर #संसार #सुरेंद्र_कुमार_अधाना
रचना तिथि 28/04/2020
संशोधित 04/05/2020
Wednesday, 22 April 2020
हम सबको सचेत होना का दिन 22 अप्रैल "पृथ्वी दिवस "
महाकाव्यों में भी कहा गया है कि हमे पर्यावरण और धरती का मात्र उतना ही दौहन करना चाहिए जितना हमारी आवश्यकता है। हमें जंगलों को उतना ही कांटना चाहिए, जितना हमें हकीकम में चाहिए, हमें विकास इतना करना चाहिए ताकि हम अपना भी विकास कर सके और पर्यावरण के बीच संतुलन भी बना रहे, लेकिन बड़ी समस्यां यह है कि जब सर्दियां आती है तो लोग इस जुगत में लग जाते है कि बहुत सर्दी है हमें जलाने की लिए लकड़ी चाहिए, जब बरसात होती है तो हम चिंतित हो जाते है कि कहीं बाढ़ आ जाती है, और सेकड़ों लोग पलायन की कगार पर आ जाते है साथ ही बहुत बड़े भाग में पेड़-पौधे, वनस्पति नष्ट हो जाती है। जब गर्मियां आती है तो पेड़ धरती गर्म हो जाने के कारण उग नहीं पाते या जो छोटे पेड़ होते है वह मर जाते है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार ने बहुत से ऐसे पेड़ है जिनपर कांटने की पाबंदी लगाई हुई है, लेकिन दूर दराज और जंगलों में इन सब की निगरानी रख पाना सरकार की बसमें भी नहीं है। करोड़ों जन मानस पर ऐसे निगरानी अखिर कब तक रखी जा सकती है।
पर्यावरण के विनास का सबसे बड़ा कारण है हमारी लाभ की इच्छा और विकसित होने की दोड़ में हमारी तेज गति होना। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि विकास हमारे जीवन को सरल बनाता है हमें हजारों सुविधा उपलब्ध करता, हमारी यात्रा सुगम करता है लेकिन फिर भी कही ना कही तो हमको अंतिम रेखा अंकित करनी होगी।
हमारे भारत में कई ऐसे शहर हैं जहां की हवा भी ज़हर के बराबर है, जिससे सुधारने के तमाम प्रयास न तो हवा की गुणवत्ता को सुधार पाएं है और न ही वहां के आस पास के वातावरण को। इसमें में सबसे ज्यादा सहभागिता हमारी ही है और जब तक हमारे हाथ इसके संरक्षण के लिए नहीं उठेंगे तब तक समस्या हू-बा-हू बनी रहेगी। भारत की जनमानस या यू कहें कि हमारी परवर्शिर बचपने से ही ऐसी ही होती आई है कि हम किसी भी चीज़ की जीम्मेदारी नहीं ले पाते, और देश अहित में हम कितने दण्ड कर बैठते है हमे खुद ही पता नहीं चलता।
चलों जानने का प्रयास करते है यह सब क्या है-
1. सुबह जब जागते है तो सबसे पहले हम फ्री में प्रकृति से पानी पाते है जिससे हम हाथ-मूह धोना, स्नान करना, गाड़ी, कार, मोटरसाईकिल, साईकिल धोते है और बहुत सारा पानी यू ही वहा देते है।
2. हमारे घरों में जो गंदगी होती है उसको हम नगर निगम के डस्टबिन में न डालकर सड़क के किसी किनारे फैंक देते है।
3. यदि हमारे घर में बच्चे है और वह किसी सार्वजनिक पार्कों में जाते है तो बहुत सी खाने-पीने का सामान लेकर जाते है उसमें से खाते है और उसके पैकिट वही फैंक देते, बोतल वही छोड़ देते है।
4. हम किसी सार्वजनिक पार्क की देख भाल नहीं करते, साथ ही जो अपनी जरूरत को होता है उसे नौंच जरूर लेते है।
5. यदि हम किसी सार्वजनिक यातायात का इस्तेमाल करते है तो सीट नौच देते है, कुछ खाते-पीते समय उसमें गंदगी छोड़े देते है कुछ लोग बाहर सड़क पर फैंक देते है।
6. यदि हम अपनी कार से कही जा रहे है तो ऐसा बहुत कम होता है कि हम खाने-पीना के पैकेट कार में छोड़ दे उसकों आप तुरंत के तुरंत साफ करते रहते है साथ ही फलों के छिलके, ठंडा पेयजल, पानी की बोतल, या नमकीन आदि का पैकट तुरंत ही सड़क पर फैंक देते है।
7. हमको लगता है नाले तो गंदे ही होते है गंदगी उसमें डालने से कुछ नहीं होगा, लेकिन आप को पता है कि इससे क्या होगा।
8. हम नदियों में शोच, घर-पूजा की बची चीजें, मूर्ति आदि नदियों में प्रवाहित करते रहते है।
9. पेड़ो से लगाव कम करते है साथ यदी वह हमारी किसी प्रकार की बांधा उत्पन्न करता है तो हम उसे कांट डालते उसके उन्य विकल्प के बारे में कम सोचते है।
10. फलदार पेड़ फल भी देते है और मानव का असबसे अधिक शोषण भी सहते है कोई उनके फलों के लिए पत्थर मारता है तो कोई द्वेष में उन्हें कांट तक देता है। कई उदाहरण मैंने अपने आंखे से देखे है।
हम पेड़ों, फल- फूलों, जल स्त्रोतो, धरती आदि पर अपना अधिकार जताना जानते है, लेकिन उनको पालना नहीं जानते, उनकी जरूरतों को नहीं जानते, उनके श्रृंगार को नहीं जानते, उनके मन को नहीं जानते!!
और जानेगे भी तो कैसे हमारी संस्कृति में, हमारे समाज में, हमारे परिवेश में, हमारे मनोरंजन के साधन में पर्यावरण, धरती, मिट्टी, फल-फूल, धरती की खुशबू कही खो गई है। जिसे हमें पुन: जीवित करना होगा। प्रकृति से प्रेेम करना होगा। फूलों के रंगों को खूशबू को महसूस करना होगा, कीट पतंगो, चिड़ियों और कोयलों के स्थान को उन्हें लौटाना होगा।
धरती का श्रृंगार तब तक अधूरा है जब तक मानव, जानवर, पक्षी, कीट-पतंगे, जंगल, पेड़, पौधो, फूलों, पहाड़ों, तालाब, नदी, झरनों, समुंद्र, धरती, मिट्टी आदि सब का मेल ना हो। सब का अपना संगीत है और मूल संगीत मूल होता है, वातावरण के साथ ही मिटता और पैदा होता है। हम मानव आगे निकल आएं है हमें पीछे जाने की जरूरत नहीं है लेकिन जो पीछे रह गया है उन सबको साथ ले लेंगे तो ऐसे में धरता का श्रृंगार भी पूरा हो जाँएगा और हमारा जीवन का सतुंल।
© Surender kumar Adhana
#जंगल #पृथ्वीदिवस22अप्रैल #पहाड़
#नीमकापेड़
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फोटो आभार - गूगल इमेज।। |
पर्यावरण के विनास का सबसे बड़ा कारण है हमारी लाभ की इच्छा और विकसित होने की दोड़ में हमारी तेज गति होना। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि विकास हमारे जीवन को सरल बनाता है हमें हजारों सुविधा उपलब्ध करता, हमारी यात्रा सुगम करता है लेकिन फिर भी कही ना कही तो हमको अंतिम रेखा अंकित करनी होगी।
हमारे भारत में कई ऐसे शहर हैं जहां की हवा भी ज़हर के बराबर है, जिससे सुधारने के तमाम प्रयास न तो हवा की गुणवत्ता को सुधार पाएं है और न ही वहां के आस पास के वातावरण को। इसमें में सबसे ज्यादा सहभागिता हमारी ही है और जब तक हमारे हाथ इसके संरक्षण के लिए नहीं उठेंगे तब तक समस्या हू-बा-हू बनी रहेगी। भारत की जनमानस या यू कहें कि हमारी परवर्शिर बचपने से ही ऐसी ही होती आई है कि हम किसी भी चीज़ की जीम्मेदारी नहीं ले पाते, और देश अहित में हम कितने दण्ड कर बैठते है हमे खुद ही पता नहीं चलता।
चलों जानने का प्रयास करते है यह सब क्या है-
1. सुबह जब जागते है तो सबसे पहले हम फ्री में प्रकृति से पानी पाते है जिससे हम हाथ-मूह धोना, स्नान करना, गाड़ी, कार, मोटरसाईकिल, साईकिल धोते है और बहुत सारा पानी यू ही वहा देते है।
2. हमारे घरों में जो गंदगी होती है उसको हम नगर निगम के डस्टबिन में न डालकर सड़क के किसी किनारे फैंक देते है।
3. यदि हमारे घर में बच्चे है और वह किसी सार्वजनिक पार्कों में जाते है तो बहुत सी खाने-पीने का सामान लेकर जाते है उसमें से खाते है और उसके पैकिट वही फैंक देते, बोतल वही छोड़ देते है।
4. हम किसी सार्वजनिक पार्क की देख भाल नहीं करते, साथ ही जो अपनी जरूरत को होता है उसे नौंच जरूर लेते है।
5. यदि हम किसी सार्वजनिक यातायात का इस्तेमाल करते है तो सीट नौच देते है, कुछ खाते-पीते समय उसमें गंदगी छोड़े देते है कुछ लोग बाहर सड़क पर फैंक देते है।
6. यदि हम अपनी कार से कही जा रहे है तो ऐसा बहुत कम होता है कि हम खाने-पीना के पैकेट कार में छोड़ दे उसकों आप तुरंत के तुरंत साफ करते रहते है साथ ही फलों के छिलके, ठंडा पेयजल, पानी की बोतल, या नमकीन आदि का पैकट तुरंत ही सड़क पर फैंक देते है।
7. हमको लगता है नाले तो गंदे ही होते है गंदगी उसमें डालने से कुछ नहीं होगा, लेकिन आप को पता है कि इससे क्या होगा।
8. हम नदियों में शोच, घर-पूजा की बची चीजें, मूर्ति आदि नदियों में प्रवाहित करते रहते है।
9. पेड़ो से लगाव कम करते है साथ यदी वह हमारी किसी प्रकार की बांधा उत्पन्न करता है तो हम उसे कांट डालते उसके उन्य विकल्प के बारे में कम सोचते है।
10. फलदार पेड़ फल भी देते है और मानव का असबसे अधिक शोषण भी सहते है कोई उनके फलों के लिए पत्थर मारता है तो कोई द्वेष में उन्हें कांट तक देता है। कई उदाहरण मैंने अपने आंखे से देखे है।
हम पेड़ों, फल- फूलों, जल स्त्रोतो, धरती आदि पर अपना अधिकार जताना जानते है, लेकिन उनको पालना नहीं जानते, उनकी जरूरतों को नहीं जानते, उनके श्रृंगार को नहीं जानते, उनके मन को नहीं जानते!!
और जानेगे भी तो कैसे हमारी संस्कृति में, हमारे समाज में, हमारे परिवेश में, हमारे मनोरंजन के साधन में पर्यावरण, धरती, मिट्टी, फल-फूल, धरती की खुशबू कही खो गई है। जिसे हमें पुन: जीवित करना होगा। प्रकृति से प्रेेम करना होगा। फूलों के रंगों को खूशबू को महसूस करना होगा, कीट पतंगो, चिड़ियों और कोयलों के स्थान को उन्हें लौटाना होगा।
धरती का श्रृंगार तब तक अधूरा है जब तक मानव, जानवर, पक्षी, कीट-पतंगे, जंगल, पेड़, पौधो, फूलों, पहाड़ों, तालाब, नदी, झरनों, समुंद्र, धरती, मिट्टी आदि सब का मेल ना हो। सब का अपना संगीत है और मूल संगीत मूल होता है, वातावरण के साथ ही मिटता और पैदा होता है। हम मानव आगे निकल आएं है हमें पीछे जाने की जरूरत नहीं है लेकिन जो पीछे रह गया है उन सबको साथ ले लेंगे तो ऐसे में धरता का श्रृंगार भी पूरा हो जाँएगा और हमारा जीवन का सतुंल।
© Surender kumar Adhana
#जंगल #पृथ्वीदिवस22अप्रैल #पहाड़
#नीमकापेड़
Sunday, 2 February 2020
नरवर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहु ते अधिकारी।।
अर्थात् - शास्त्र नीति में वही श्रेष्ठ पुरुष अधिकारी है,
जो धीर और धर्म की धूरी को धारण करते है।
02 02 20 20
जो धीर और धर्म की धूरी को धारण करते है।
02 02 20 20
Monday, 20 January 2020
जलतें जंगल
जंगलों का जलना सहज है, जंगलों को जलाकर ही हम इस
आधुनिकता के पड़ाव तक पहुंचे है। जंगलों को काटकर और उन्हें जलाकर ही हमारे
पूर्वजों ने अपने पेट की भूख को मिटाया है। अपने अस्तित्व को बनाया है फिर
धीरे-धीरे बढ़ाया है। जंगल एक ऐसा बहुत छोटा सा लेकिन समूचा शब्द है जो हमारे
अस्तित्व की नींव रखता है। जंगल ने हमारी पेट पूजा ही नहीं ब्लकि रहने, बसने, घर
बनाने, अर्थ कमाने, खेती करने, पशुओं को चराने-बसाने, पकड़ने-बांधने न जाने कितने
कुछ यंत्रों को दिया है। जंगलों के कारण मानव की खोज़ सतत् जारी रहीं और जंगलों से
ही हम सबकी पूर्ति होती रही।
हमने न केवल जंगलों को जलाया है बल्कि
पशु-पक्षियों, जंगली जानवरों, कीट-पतंगों, पानी में जीवित व अजीवित, पहाड़, नदियो,
पानी न जाने कितने कुछ चीजों का दोहन केवल अपने फायदे और अपने जीवन को सुरक्षित
करने के लिए किया है। मानव ने हर चीज़ जो हमारे काम आ सकती है सब को अपने हिसाब से
तोड़ा-मरोड़ा है। जितना वह समेट सकता था समेटा है। जितना वह पा सकता था उसने लूटा
है। जितना वह बर्बाद कर सकता था वह किया है, लेकिन अपने हिस्से का काम आज तक मानव
ने प्रकृति अनुरूप नहीं किया है।
यह हर मानव जानता है कि प्रकृति से जो हमें मिला
है या मिल रहा है वह अनमोल है। उसका विकल्प शायद हो सकता है, लेकिन जो प्राकृतिक रूप
से अपने असल रूप में हमें मिला है वह पूर्ण है। चाहें वह हवा हो, पानी हो, पहाड़
हो, जंगल हो, पशु हो, जानवर हो या छोटे-छोटे कीट-पतंगे। सभी की जीविका का चक्र पर्यावरण
और प्रकृति में निहित है। प्रकृति ने सभी को संतुलित किया है ताकि ताल-मेल से धरा
पर करोड़ों योनियां रच-बस सके, विकसित हो सकें।
जब किसी भी कार्य की अति हो जाती है तो हम संकट
से ज़रूर गुज़रे है यह प्रकृति भी दर्शा देती है और हमारी तकनीकि भी इस ओर इशारा
कर चुकी है। हम हर रोज न जाने कितने पेड़ों, जंगलों और हरियाली को चाहते, न चाहते
खत्म करते जा रहे है जिसके दूर-गामी परिणाम हमारी पीढ़ियां भुगतेगी। विकास के रूप
में पेड़ों की कटाई हो, या जंगलों में लगी आग यह सब हम सब के हिस्से के भविष्य का
नाश कर रही है जिसकी आहट हम सबकों समझनी चाहिए। अमेजोन में लगी आग और
आस्ट्रेलिया में जले जंगलों ने न केवल प्रकृति को नष्ट किया है ब्लकि जंगल
जीवन के चक्र को प्रभावित किया है। जिसे बनने, विकसित होने, तालमेल बैठाने में
वक्त जरूर लगेगा। यह हम सब के हिस्से की आग है जो धीरे-धीरे सुगल रही है। जो एक
दिन धरा की प्रत्येक चीज़ को नष्ट कर देगी।
- सुरेन्द्र कुमार अधाना
जलतें जंगल
जंगलों का जलना सहज है, जंगलों को जलाकर ही हम इस
आधुनिकता के पड़ाव तक पहुंचे है। जंगलों को काटकर और उन्हें जलाकर ही हमारे
पूर्वजों ने अपने पेट की भूख को मिटाया है। अपने अस्तित्व को बनाया है फिर
धीरे-धीरे बढ़ाया है। जंगल एक ऐसा बहुत छोटा सा लेकिन समूचा शब्द है जो हमारे
अस्तित्व की नींव रखता है। जंगल ने हमारी पेट पूजा ही नहीं ब्लकि रहने, बसने, घर
बनाने, अर्थ कमाने, खेती करने, पशुओं को चराने-बसाने, पकड़ने-बांधने न जाने कितने
कुछ यंत्रों को दिया है। जंगलों के कारण मानव की खोज़ सतत् जारी रहीं और जंगलों से
ही हम सबकी पूर्ति होती रही।
हमने न केवल जंगलों को जलाया है बल्कि पशु-पक्षियों, जंगली जानवरों, कीट-पतंगों, पानी में जीवित व अजीवित, पहाड़, नदियो, पानी न जाने कितने कुछ चीजों का दोहन केवल अपने फायदे और अपने जीवन को सुरक्षित करने के लिए किया है। मानव ने हर चीज़ जो हमारे काम आ सकती है सब को अपने हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा है। जितना वह समेट सकता था समेटा है। जितना वह पा सकता था उसने लूटा है। जितना वह बर्बाद कर सकता था वह किया है, लेकिन अपने हिस्से का काम आज तक मानव ने प्रकृति अनुरूप नहीं किया है।
यह हर मानव जानता है कि प्रकृति से जो हमें मिला है या मिल रहा है वह अनमोल है। उसका विकल्प शायद हो सकता है, लेकिन जो प्राकृतिक रूप से अपने असल रूप में हमें मिला है वह पूर्ण है। चाहें वह हवा हो, पानी हो, पहाड़ हो, जंगल हो, पशु हो, जानवर हो या छोटे-छोटे कीट-पतंगे। सभी की जीविका का चक्र पर्यावरण और प्रकृति में निहित है। प्रकृति ने सभी को संतुलित किया है ताकि ताल-मेल से धरा पर करोड़ों योनियां रच-बस सके, विकसित हो सकें।
जब किसी भी कार्य की अति हो जाती है तो हम संकट से ज़रूर गुज़रे है यह प्रकृति भी दर्शा देती है और हमारी तकनीकि भी इस ओर इशारा कर चुकी है। हम हर रोज न जाने कितने पेड़ों, जंगलों और हरियाली को चाहते, न चाहते खत्म करते जा रहे है जिसके दूर-गामी परिणाम हमारी पीढ़ियां भुगतेगी। विकास के रूप में पेड़ों की कटाई हो, या जंगलों में लगी आग यह सब हम सब के हिस्से के भविष्य का नाश कर रही है जिसकी आहट हम सबकों समझनी चाहिए। अमेजोन में लगी आग और आस्ट्रेलिया में जले जंगलों ने न केवल प्रकृति को नष्ट किया है ब्लकि जंगल जीवन के चक्र को प्रभावित किया है। जिसे बनने, विकसित होने, तालमेल बैठाने में वक्त जरूर लगेगा। यह हम सब के हिस्से की आग है जो धीरे-धीरे सुगल रही है। जो एक दिन धरा की प्रत्येक चीज़ को नष्ट कर देगी।
हमने न केवल जंगलों को जलाया है बल्कि पशु-पक्षियों, जंगली जानवरों, कीट-पतंगों, पानी में जीवित व अजीवित, पहाड़, नदियो, पानी न जाने कितने कुछ चीजों का दोहन केवल अपने फायदे और अपने जीवन को सुरक्षित करने के लिए किया है। मानव ने हर चीज़ जो हमारे काम आ सकती है सब को अपने हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा है। जितना वह समेट सकता था समेटा है। जितना वह पा सकता था उसने लूटा है। जितना वह बर्बाद कर सकता था वह किया है, लेकिन अपने हिस्से का काम आज तक मानव ने प्रकृति अनुरूप नहीं किया है।
यह हर मानव जानता है कि प्रकृति से जो हमें मिला है या मिल रहा है वह अनमोल है। उसका विकल्प शायद हो सकता है, लेकिन जो प्राकृतिक रूप से अपने असल रूप में हमें मिला है वह पूर्ण है। चाहें वह हवा हो, पानी हो, पहाड़ हो, जंगल हो, पशु हो, जानवर हो या छोटे-छोटे कीट-पतंगे। सभी की जीविका का चक्र पर्यावरण और प्रकृति में निहित है। प्रकृति ने सभी को संतुलित किया है ताकि ताल-मेल से धरा पर करोड़ों योनियां रच-बस सके, विकसित हो सकें।
जब किसी भी कार्य की अति हो जाती है तो हम संकट से ज़रूर गुज़रे है यह प्रकृति भी दर्शा देती है और हमारी तकनीकि भी इस ओर इशारा कर चुकी है। हम हर रोज न जाने कितने पेड़ों, जंगलों और हरियाली को चाहते, न चाहते खत्म करते जा रहे है जिसके दूर-गामी परिणाम हमारी पीढ़ियां भुगतेगी। विकास के रूप में पेड़ों की कटाई हो, या जंगलों में लगी आग यह सब हम सब के हिस्से के भविष्य का नाश कर रही है जिसकी आहट हम सबकों समझनी चाहिए। अमेजोन में लगी आग और आस्ट्रेलिया में जले जंगलों ने न केवल प्रकृति को नष्ट किया है ब्लकि जंगल जीवन के चक्र को प्रभावित किया है। जिसे बनने, विकसित होने, तालमेल बैठाने में वक्त जरूर लगेगा। यह हम सब के हिस्से की आग है जो धीरे-धीरे सुगल रही है। जो एक दिन धरा की प्रत्येक चीज़ को नष्ट कर देगी।
© सुरेन्द्र कुमार अधाना
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