Saturday 31 December 2022

अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष - 2023

भारत गावों का, किसान का देश है। भारत जब आज़ाद हुआ तो वह खण्ड-2 था, बहुत सी रियासतें, रजवाड़े देश के अलग-अलग भू-खण्डों पर अपना वर्चस्व जमाएं हुए थे। जहां किसानों को बहुत ज्यादा आज़ादी नहीं थी और न ही बहुत ज्यादा अच्छी स्थिति। किसानों, मजदूरों, गुलामों का जो शोषण अंग्रेजो द्वारा किया जा रहा था, वही नीति कमोवेश बाद तक चलती रही। किसानों, मजदूरों, गुलामों से काम लिया जाता रहा और उनकी कमाई का अधिकांश  हिस्सा उनसे किसी ना किसी रूप में वापक ले लिया जाता था।

1947 में देश आज़ाद हुआ। रियासतें, रजवाड़ों के अलग-अलग पड़े भू-खण्डों को जोड़कर एक राष्ट्र बनाया गया। देश आज़ाद होने के बाद से किसानों की स्थिति में बदलाव का दौर नज़र आने लगा, लेकिन पुरानी मानसिकताओं और शोषण के रंग ने नया रूप ले लिया था। किसानों की स्थिति बहुत वर्षों तक हू-ब-हू रहीं। सरकार द्वारा प्रथम पंचवर्षीय योजनाएं तैयार की गई, और राष्ट्र के जन-मानस को सबसे पहले खाद्य पदार्थों में भारत को स्वावलंबन बनाने के लिए कार्य किए ताकि अनाज के रूप में पूरा भारत भर पेट भोजन कर सके। उसके लिए जहां जैसी स्थिति थी अनाज, मोटा अनाज, रागी, जौ, बाजार, मक्का आदि जैसी भौगोलिक स्थिति थी, अनाज को पैदा किया गया। तब भारत दूसरे देशों से अनाज आयात करता था। भारत सरकार की प्रथम पंचवर्षीय योजना का यह प्रभाव रहा कि नहर, नलकूप, दूर-दराज गांवों में सरकारी ट्यूब-वेल की सहायता से सिंचाई का रास्त निकाला गया। जिससे किसान अधिक भू-खण्ड पर खेती कर सके। साथ ही खेती को थोड़ा उन्नत बनाने के रास्ते भी खोजे गए।

फोटो- गूगल ईमेज के माध्यम से

तीसरी, चौथी और छठी पंचवर्षीय योजना में कृषि पर अधिक बल दिया गया क्योंकि भारत का अधिकास जन-मानस कृषि पर ही निर्भर था और भारत के पास ऐसी भूमि बहुत ज्यादा थी जिस पर खेती की जा सकती थी, लेकिन परम्परागत तरीके से या तो खेत की जुताई नहीं हो पाती थी, यदि खेत तैयार हो जाते थे बुआई नहीं हो पाती थी, यदि बुआई हो गई तो सिंचाई की व्यवस्था नहीं थी, यदि सिंचाई भी कर ली गई तो मौसम का डर लगा रहता था। खेती बहुत संकट के दौर से गुजर रही थीं।

ऐसे में किसान के पास सिंचाई के अधिक साधन न होने के चलते देश के ऐसे भागों में जहां पानी की किल्लत रहती थी। वहां जौ, बाजरा, मक्का की बुआई करने लगे। यह लोगों के खाने का प्रमुख साधन था और पशुओं का चारा भी। पानी की समस्यां दूर हो जाने के बाद किसानों ने बड़ी मात्रा में अनाज, जौ, चना, मुंगफली, चावल आदि फसलों को तैयार करना प्रारंभ कर दिया। जिससे सम्पूर्ण भारत को अनाज भी मिला और कुपोष जैसी घातक समस्यां को भी दूर किया गया। आज भारत से गेहूं की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत ज्यादा मांग है। वर्ष 2021-22 में भारत ने 70 लाख टन गेहूं का निर्यात किया। इसकी कीमत करीब 2.05 बिलियन अमरीकी डॉलर थी। अब उन्नत तकनीकि ने किसानों के लिए खेती के नए रास्ते खोले है ट्रेक्टर, कल्टीवेटर, हेरो, टीलर, मैडा, सीड ड्रिल, कल्टीवेटर, रोट्री और फसलों की बुआई के लिए मशीन जैसे गेहूं की बुआई, आलू, गाजर, मूली, धनिया बुआई की मशीन आदि, बीजों के रौपाई व पौध को सीधे खेतों में रौपने के लिए भी मशीन बाजार में मौजूद है। सरकारों द्वारा भी किसानों को सब्सिडी देकर खेती करने के लिए किसानों को सहायता दी जा रही है। वर्तमान में केसीसी कार्ड योजना, सोलर पैनल योजना, फसल बीमा योजना, किसान सम्मान निधि योजना आदि ऐसी योजनाएँ है जो किसानों का सहायता प्रदान करतीं है ताकि कृषक अपनी फसलों की बुआई और देखभाल समय पर कर सके और हानि होने पर पर्याप्त मुआवजा भी मिल सकें।  

अब हम अपने अतीत में लौट रहे है। अनियमित मानसून ने पिछले कई वर्षों से फसलों को बुरी तरह प्रभवित किया है। सन् 2022 के खरीफ मौसम की उपज के लिए सरकार की चिंता बढ़ा दी है। वर्ष 2022 में ज्यादातर इलाकों में धान और दलहन की बुआई बुरी तरह प्रभावित हुई है। जलवायु परिवर्तन ने देश में गेहूँ और धान के उत्पादन को प्रभावित किया हैजो मोटे अनाज पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता को दर्शाता है। गेहूँ और धान की खेती अनिश्चित मौसम स्वरुप के कारण देश की खाद्य ज़रूरतों को पूरा करने के लिये पर्याप्त नहीं है। ऐसे में भारत सरकार ने 2023 को अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष 2023 घोषित किया है ताकि ज्वार, बाजरा, मक्का, जौ, रागी आदि के उत्पादन को बढ़ाया जा सके क्योंकि मोटे अनाज में सूखा सहिष्णुता, प्रकाश-असंवेदनशीलता और जलवायु परिवर्तन के प्रति उपयुक्त आदि विशेषताएँ विद्यमान हैं।

यदि उद्योग की दृष्टि से देखों तो भी मोटे अनाज की बाजार में भरपूर आवश्यकता है। जैसे बाजरा - शराब बनाने, स्टार्च, बेकरी, पोल्ट्री और पशु आहार के रूप में, मक्का – चारा, बेकरी, मुर्गी पालन, स्टार्च और जैव-ईंधन के रूप में, चारा या फीड-  गुड़, बेकरी, फ्रुक्टोज सिरप आदि के लिए। वहीं भारत के उत्तरी राज्यों जैसे  हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश  में ज्वार और बाजरा की खेती  मुख्य रूप से चारे के लिए की जाती है। यह अन्य खेती की तुलना में कम लागत और कम सिंचाई में भी उगाई जा सकती है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 2023 को अंतर्राष्ट्रीय बाजरा वर्ष (International Year of Millets) के रूप में मनाने के भारत के प्रस्‍ताव को स्‍वीकृति दी है। इसे हमें अवसर के रूप में लेना चाहिए। 

@सुरेंद्र कुमार अधाना

Sunday 23 May 2021

चिपको आंदोलन के प्रणेता पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा को श्रद्धांजलि।।

सुंदरलाल जितने जुझारू और प्रकृति की रक्षा के लिए सक्रीय थे, उतने ही सरल, सौम्य और चिंतन-मनन करने वाले।प्रकृति के उपासक सुंदर लाल बहुगुणा और उनकी पत्नी ने अपना पूरा जीवन पर्यावरण की रक्षा के लिए समर्पित कर दिया, इसीलिए उनके कार्य के प्रति प्रेम, उत्साह और लगन के चलते लोग उन्हें वृक्षमित्र और हिमालय के रक्षक कहते है।

लकड़ी पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार
उन्होंने न केवल पेड़ों बल्कि पानी, हवा, पहाड़, विस्थापन और पहाड़ी कल्चर पर होते प्रहार के लिए भी जीवन भर लड़ाई लड़ी और अपना पूरा जीवन समाज कल्याण में लगा दिया। उनके साथ उनकी पत्नी विमला देवी ने भी पर्यावरण सुरक्षा में उनका सदैव सहयोग किया है। 1970 में शुरु हुए चिपकों अंदोलन में सुन्दरलाल बहुगुणा के साथ गोविन्द सिंह रावत, चण्डीप्रसाद भट्ट और महिलाओं का नेतृत्व गौरादेवी ने किया.... जो पेड़ों से चिपक कर उन्हें अपनी संतान की तरह पेड़ों को कटने से बचाया।
जिस समय यह आन्दोलन हो रहा था, तब पर्यावरण के साथ बड़ी छेड़छाड़ की जा रही थी। जिसके भावी परिणामों को भांपते हुए इन दूरदर्शी महानुभवों ने सही समय पर सही प्रहार किया । ऐसे महान व्यक्तित्व अमर हो जाते है, जो समाज के काम आते है।
सुंदरलाल बहुगुणा गुरुदेव आपको श्रद्धांजलि।
सादर नमन।।

सुंदर लाल बहुगुणा जी और उनकी पत्नी गौरा देवी PIC- GOOGLE IMAGE





डॉ. धर्मेंद्र सिहं सर की स्मृतियां शेष।

         15 MAY 2021
वर्तमान में जम्मू केंद्रीय  विश्वविद्यालय के जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग में प्रोफेसर, पूर्व में सुभारती विश्वविद्यालय के डीन, प्रख्यात संचारविद, कुशल वक्ता डॉ. धर्मेंद्र सिंह सर की अब स्मृतियां बची है। आपके मार्गदर्शन में मैंने व्यक्तिगत तौर पर बहुत कुछ सीखा और समझा। आपके जाने से बहुत खालीपन महसूस कर रहा हूं। प्रभु से प्रार्थना है कि वह आपको अपने श्री चरणों में स्थान दें और आवागमन से मुक्त करें। 
अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।। आपकी याद में.....





Friday 1 January 2021

Sunday 10 May 2020

ये कैसा दौर है मौला !

Photo- Google image/outlook
कहीं आतंकवाद है, कहीं किसी जवान ने गोली खाई है।
कोई भूखा है, कहीं किसी नन्हें बच्चों ने जान गवाई है।।

मटमैला जन भटक रहा है, टुकड़े-टुकड़े जुटाने को।
कोई बिल्ख रहा है, कई दिनों से भूख मिटाने को।।


ईश्वर थोड़ा रहम करो, ज़रा देखों इस धरा की ओर।
हम सब है तेरे बंदे, कुछ थोड़ा ही सही ज़रा रहम तो करो।।


© सुरेंद्र कुमार अधाना

* कोरोना वाइरस से लड़ता भारत के दौरान की कविता इस अंदाज़ में प्रस्तुत इसलिए की गई है क्योंकि हाल ही में पाक के साथ सीमा पर लड़ाई, भारत के अंदर छत्तीगढ़ में नक्सलीय हिंसा में कई जवानों और भारत में कोरोना संकट से जुझते जवान और डाक्टर्स की टीम में से भी बहुत से हमारे अज़ीज शहीद हो गए है साथ ही पलायन की इस दुखद घड़ी ने मजदूरों, गरीब व बेसहारा जनमानस को छोटे-छोटे बच्चें से उनके हाथ का निवाला तक छीन लिया है। 

अंग्रेजी हकूमत का अत्याधिक अत्याचार ही बन गया, उनका ताबूत


अंग्रेजों ने जिस स्तर पर चाहा हिन्दुस्तान के जनमानस का शोषण किया, जिसका गुस्सा न केवल उत्तर भारत प्रांत में, बल्कि समूचे हिन्दुस्तान में पनप रहा था।


10 मई 1857 का दिन उस विस्फोट का दिन है जो बारूद अंग्रेजों के दिन-प्रतिदिन बढ़ते अत्याचारों के कारण पैदा हो रहा था। यह सर्व-विदित है कि हिन्दुस्तान में अंग्रेज केवल व्यापार करने आएं थे। हिन्दुस्तान की आन्तरिक व्यवस्था और अलग थलग पड़ी रियास्तों और हिन्दुस्तान के कुछ लालची रियायतों नें ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ हाथ मिला कर पहले अपनी हथेली, फिर हाथ, फिर शरीर, फिर अपने रियासत ही नहीं वरन इसका खामियाजां सम्पूर्ण राष्ट्र को चुकाना पड़ा। हिन्दुस्तान में गोरो के लालच ने यहां पनाह और न केवल पनाह आंतरिक कल्ह, आंतरिक कमजोरी को परखने के बाद अपने विचार बदल लिए और फिर व्यापार, खेती के बहाने देश को ही हड़प लिया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि गोरो ने हिन्दुस्तान के भोले लोगों का फायदा उठाया वरन उनका सबकुछ हड़प भी लिया।

वह हिन्दुस्तान के इतिहास में काला दिन के रूप में ही है जब अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान की धरा पर पैर रखा क्यों कुटिल लोगों के आने हानि ही होती है। जो हिन्दुस्तान को लगभग 200 वर्षों तक चुकानी पड़ी।

इस वर्ष 2020 जब सम्पूर्ण विश्व नोबल कोरोना #COVID19 की चपेट में है ऐसे में भारत के योगदान को भूला नहीं जा सकता है। हिन्दुस्तान ने बहुत ही संकट झेले है और उन्हें पार भी किया है।

आप फिर वही दिन 10 मई 2020 हमें याद आता है कि ठीक 163 साल पहले आज ही के दिन मेरठ से आज़ादी के पहले आंदोलन की शुरूआत हुई थी जो बाद में पूरे राष्ट्र में फैल गया। 85 सैनिकों के विद्रोह से क्रांति की जो चिंगारी निकली वह धीरे-धीरे ज्वाला बन गई। यह सब एक दिन का साहस नहीं था, वरन् इसकी तैयारी लम्बे अर्शे से की जा रही थी, जरूर थी सही वक्त की। इस रणनीति में नाना साहब,  अजीमुल्ला, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तांत्या टोपे, मौलवी अहमद उल्ला शाह और बहादुर शाह जफर आदि जैसे क्रांतिकारी नेताओं ने विभिन्न स्तरों पर तैयारिया कर रखी थी। साथ ही विश्व स्तर पर गोरो के खिलाफ एक समूचा विरोध धीरे-धीरे उफान ले रहा था जिसका वर्णन विश्व इतिहास में देखा जा सकता है।

बाद में गोरो द्वारा सैनिको को दिए गए गाय और सूअर की चर्बी से बने कारतूस को चलाने से मना करने पर 85 सैनिकों के कोर्ट मार्शल की दुखद घटना ने क्रांति की तत्काल भूमिका तैयार कर दी थी। कोर्ट मार्शल के साथ उनको 10 साल की सजा सुनाई गई। बताते है कि 10 मई को रविवार का दिन था। रविवार होने की वजह से अंग्रेजी सिपाही छुट्टी पर थे। कुछ सदर के इलाके में बाजार गए थे। शाम करीब साढ़े पांच बजे क्रांतिकारियों और भारतीय सैनिकों ने ब्रितानी सैनिक और अधिकारियों पर हमला बोल दिया। सैनिक विद्रोह में सदर, लालकुर्ती, कैंट और  रजबन के अलावा अन्य क्षेत्रों में 53 से अधिक अंग्रेजों की हत्या कर दी ।

भारतीय पुलिस में कोतवाल सदर धन सिंह भी मौके पर पहुंचे जिन्होंने वहा का मौर्चा संभाला। यह क्रांति रातों रात आस-पास के प्रदेशों तक पहुंच गई जिसका कारण रहा कि मेरठ से शुरू हुई क्रांति दिल्ली समेत, पंजाबराजस्थान, बिहार, असम, तमिलनाडु व केरल तक फैल गई। बाद के दिनों में अंग्रेजी हकूमत के पैर उखड़ने लगे, रोज़ खबर आने लगी की अलग अलग प्रदेशों में अंग्रेजी हकूमत को लोग डट कर विरोध करने लगे है, अपने अधिकारों के लिए खड़े होने लगे है। बाद के वर्षों में कई ऐसे नाम पर देखते है जिन्होंने फ्रंट पर आकर लड़ाई लड़ी, लेकिन इस लड़ाई में कितने ऐसे गुमनाम सैनिक, नेता, नेत्रित्वकर्ता, मजदूर, किसान, बेकसूर जनता लड़ाई की भेंट चढ़ गए। हमे आज़ादी तो मिली लेकिन भारत माता का दामन लाल होकर, जो लाखों को लाल मां की गोद में हम सब के खातिर चले गए और गुमनामी की नीद सो गए। आज मातृत्व दिवस पर उन सभी वीर जवानों, मां के लाल को हम शत-शत नमन करते है।

#10_मई_2020
#मातृत्व_दिवस_2020
#क्रान्ति_दिवस_मेरठ


Monday 4 May 2020

प्रकृति की सुंदरता

सूनी-सूनी सड़के पड़ी है, सूने है खेत।
चिड़ियां चहचाह रही है, कह रही यह देख।।

इंसान ने यह क्या किया है, सीमा कर ली पार।
जहां से वापस खुद  आना, हो गया दुश्वार।।

अब देखे कैसा लग रहा है, यह प्यारा संसार।
जैसे हम रह रहे हो, किसी मानव जंगल के पार।।

सुंदर नदियां झर रही, प्रकृति का स्वच्छ नीर।
मानों जंगल में उत्सव मना रहे हो, पशु, पक्षी और शमशीर।।

दिन अब लगता है सुहाना, राते भी हो गई है गुलज़ार।
यदि मानव हद में रहे तो, कितना सुंदर है संसार।।
यदि मानव हद में रहे तो, कितना सुंदर है संसार।।

© सुरेंद्र कुमार अधाना

#जंगल , #प्रकृति #Nature #चिड़ियां #सुंदर #संसार #सुरेंद्र_कुमार_अधाना
रचना तिथि 28/04/2020
संशोधित 04/05/2020





Wednesday 22 April 2020

हम सबको सचेत होना का दिन 22 अप्रैल "पृथ्वी दिवस "

महाकाव्यों में भी कहा गया है कि हमे पर्यावरण और धरती का मात्र उतना ही दौहन करना चाहिए जितना हमारी आवश्यकता है। हमें जंगलों को उतना ही कांटना चाहिए, जितना हमें हकीकम में चाहिए, हमें विकास इतना करना चाहिए ताकि हम अपना भी विकास कर सके और पर्यावरण के बीच संतुलन भी बना रहे, लेकिन बड़ी समस्यां यह है कि जब सर्दियां आती है तो लोग इस जुगत में लग जाते है कि बहुत सर्दी है हमें जलाने की लिए लकड़ी चाहिए, जब बरसात होती है तो हम चिंतित हो जाते है कि कहीं बाढ़ आ जाती है, और सेकड़ों लोग पलायन की कगार पर आ जाते है साथ ही बहुत बड़े भाग में पेड़-पौधे, वनस्पति नष्ट हो जाती है। जब गर्मियां आती है तो पेड़ धरती गर्म हो जाने के कारण उग नहीं पाते या जो छोटे पेड़ होते है वह मर जाते है। 
फोटो आभार - गूगल इमेज।।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार ने बहुत से ऐसे पेड़ है जिनपर कांटने की पाबंदी लगाई हुई है, लेकिन दूर दराज और जंगलों में इन सब की निगरानी रख पाना सरकार की बसमें भी नहीं है। करोड़ों जन मानस पर ऐसे निगरानी अखिर कब तक रखी जा सकती है। 
पर्यावरण के विनास का सबसे बड़ा कारण है हमारी लाभ की इच्छा और विकसित होने की दोड़ में हमारी तेज गति होना। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि विकास हमारे जीवन को सरल बनाता है हमें हजारों सुविधा उपलब्ध करता, हमारी यात्रा सुगम करता है लेकिन फिर भी कही ना कही तो हमको अंतिम रेखा अंकित करनी होगी। 
हमारे भारत में कई ऐसे शहर हैं जहां की हवा भी ज़हर के बराबर है, जिससे सुधारने के तमाम प्रयास न तो हवा की गुणवत्ता को सुधार पाएं है और न ही वहां के आस पास के वातावरण को। इसमें में सबसे ज्यादा सहभागिता हमारी ही है और जब तक हमारे हाथ इसके संरक्षण के लिए नहीं उठेंगे तब तक समस्या हू-बा-हू बनी रहेगी। भारत  की जनमानस या यू कहें कि हमारी परवर्शिर बचपने से ही ऐसी ही होती आई है कि हम किसी भी चीज़ की जीम्मेदारी नहीं ले पाते, और देश अहित में हम कितने दण्ड कर बैठते है हमे खुद ही पता नहीं चलता।
चलों जानने का प्रयास करते है यह सब क्या है- 
1. सुबह जब जागते है तो सबसे पहले हम फ्री में प्रकृति से पानी पाते है जिससे हम हाथ-मूह धोना, स्नान करना, गाड़ी, कार, मोटरसाईकिल, साईकिल धोते है और बहुत सारा पानी यू ही वहा देते है। 
2. हमारे घरों में जो गंदगी होती है उसको हम नगर निगम के डस्टबिन में न डालकर सड़क के  किसी किनारे फैंक देते है। 
3. यदि हमारे घर में बच्चे है और वह किसी सार्वजनिक पार्कों में जाते है तो बहुत सी खाने-पीने का सामान लेकर जाते है उसमें से खाते है और उसके पैकिट वही फैंक देते, बोतल वही छोड़ देते है। 
4. हम किसी सार्वजनिक पार्क की देख भाल नहीं करते, साथ ही जो अपनी जरूरत को होता है उसे नौंच जरूर लेते है। 
5. यदि हम किसी सार्वजनिक यातायात का इस्तेमाल करते है तो सीट नौच देते है, कुछ खाते-पीते समय उसमें गंदगी छोड़े देते है कुछ लोग बाहर सड़क पर फैंक देते है। 
6. यदि हम अपनी कार से कही जा रहे है तो ऐसा बहुत कम होता है कि हम खाने-पीना के पैकेट कार में छोड़ दे उसकों आप तुरंत के तुरंत साफ करते रहते है साथ ही फलों के छिलके, ठंडा पेयजल, पानी की बोतल, या नमकीन आदि का पैकट तुरंत ही सड़क पर फैंक देते है।
7. हमको लगता है नाले तो गंदे ही होते है गंदगी उसमें डालने से कुछ नहीं होगा, लेकिन आप को पता है कि इससे क्या होगा।
8. हम नदियों में शोच, घर-पूजा की बची चीजें, मूर्ति आदि नदियों में प्रवाहित करते रहते है।
9. पेड़ो से लगाव कम करते है साथ यदी वह हमारी किसी प्रकार की बांधा उत्पन्न करता है तो हम उसे कांट डालते उसके उन्य विकल्प के बारे में कम सोचते है। 
10. फलदार पेड़ फल भी देते है और मानव का असबसे अधिक शोषण भी सहते है कोई उनके फलों के लिए पत्थर मारता है तो कोई द्वेष में उन्हें कांट तक देता है। कई उदाहरण मैंने अपने आंखे से देखे है। 
हम पेड़ों, फल- फूलों, जल स्त्रोतो, धरती आदि पर अपना अधिकार जताना जानते है, लेकिन उनको पालना नहीं जानते, उनकी जरूरतों को नहीं जानते, उनके श्रृंगार को नहीं जानते, उनके मन को नहीं जानते!!
और जानेगे भी तो कैसे हमारी संस्कृति में, हमारे समाज में, हमारे परिवेश में, हमारे मनोरंजन के साधन में पर्यावरण, धरती, मिट्टी, फल-फूल, धरती की खुशबू कही खो गई है। जिसे हमें पुन: जीवित करना होगा। प्रकृति से प्रेेम करना होगा। फूलों के रंगों को खूशबू को महसूस करना होगा, कीट पतंगो, चिड़ियों और कोयलों के स्थान को उन्हें लौटाना होगा।
धरती का श्रृंगार तब तक अधूरा है जब तक मानव, जानवर, पक्षी, कीट-पतंगे, जंगल, पेड़, पौधो, फूलों, पहाड़ों, तालाब, नदी, झरनों, समुंद्र, धरती, मिट्टी आदि सब का मेल ना हो। सब का अपना संगीत है और मूल संगीत मूल होता है, वातावरण के साथ ही मिटता और पैदा होता है। हम मानव आगे निकल आएं है हमें पीछे जाने की जरूरत नहीं है लेकिन जो पीछे रह गया है उन सबको साथ ले लेंगे तो ऐसे में धरता का श्रृंगार भी पूरा हो जाँएगा और हमारा जीवन का सतुंल।

© Surender kumar Adhana

#जंगल #पृथ्वीदिवस22अप्रैल  #पहाड़   


#नीमकापेड़
    

Sunday 2 February 2020

नरवर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहु ते अधिकारी।।

अर्थात् - शास्त्र नीति में वही श्रेष्ठ पुरुष अधिकारी है,
जो धीर और धर्म की धूरी को धारण करते है।

02 02 20 20

अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष - 2023

भारत गावों का, किसान का देश है। भारत जब आज़ाद हुआ तो वह खण्ड-2 था, बहुत सी रियासतें, रजवाड़े देश के अलग-अलग भू-खण्डों पर अपना वर्चस्व जमाएं ...