Tuesday 30 December 2014

ग्रामीण मनोरंजन का आधार है रेडियो

गुल्येल्मो मार्कोनी ही थे, जिन्हें शायद इस बात पर विश्वास था कि जब दूर दराज स्थानों पर शाम को अंधेरा परसने के बाद दीए/लैम्प की मंद रौशनी में धीर-धीरे प्रकाशवान होती शाम को लोग जब तन्हा और अकेला महसूस करेंगे या मनोरंजन के रूप में किसी साधन को सोचेंगे तो ऐसे में रेडियो उनकी जरूरतों को पूरा करने में सहायक होगा। रेडियो का यह अविष्कार संयोग नहीं था इस चीज़ की जरूरत महसूस की जा रही थी। जिसके द्वारा एक जगह से दूसरी जगह संवाद स्थापित किया जा सके। मनोरंजन करने का यह सबसे सस्ता, सुलभ, तेज और सबसे अधिक लोगों के बीच आज भी लोकप्रिय है। मनोरंजन के इस पहलू को छूने में रेडियो को थोड़ा वक्त लगा, लेकिन एक सशक्त मनोरंजन के साधन के रूप में गांव की संकरी गलियों तक या देहात में वनों के अंदर बनी झोपड़ी तक रेडियो की घुसपैठ ने यह पूर्णत: सिद्ध कर ही दिया, कि चाहे शहरी परिवेश हो या ग्रामीण हम मनोरंजित हुए बिना नहीं रह सकते।
ग्रामीण परिवेश में परिवर्तन की बयार चल रही है। लोग खुद को किसी भी माध्यम से जोड़कर मनोरंजन करना चाहते हैं। ऐसे में यदि उन लोगों को कोई ऐसा यंत्र मिल जाए कि आप कभी भी-कही भी खुद को मनोरंजन से जोड़ सकते है तो ऐसे में रेडियो की मांग और बढ़ जाती है। यदि गांव में किसी यंत्र की मांग पर गौर किया जाए तो सस्ता और मोबाइल माध्यम के तौर पर रेडियो को लोग ज्यादा पसंद करते हैं। मनोरंजन के अन्य साधन भी गांव में आप सुलभ हैं, लेकिन रेडियो की उपयोगित और महत्व अलग होने के कारण इसकी जरूर ग्रामीण परिवेश में बढ़ी है। खास कर अप्रैल-मई में जब गेहूं की कटाई चल रही होती है, ऐसे में किसान पूरे-पूरे दिन कटाई करते है ऐसे में किसान या किसान महिलाएं कटाई करते समय या दोपहर कुछ आराम करने के लिए किसी पेड़ की छांव का सहारा लेकर आराम करते हुए मनोरंजन करने के लिए रेडियो का इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकते। रेडियो या यू कहे कि आकाशवाणी की सेवाएं बहुजन हिताए, बहुजन सुखाय जैसी परिकल्पना पर आधारित है जिसमें सभी उर्म्र वर्ग को ध्यान में रखकर कार्यक्रम प्रसारित किए जाते है। जिनमें क्षेत्रिय कार्यक्रम, बच्चों के लिए ज्ञान-विज्ञान की बाते, गज़ल, रागनी, ढोला, बुलेटिन, महत्वपूर्ण जानकारी, भक्ति संगीत, योजनाएं पर चर्चा-परिचर्चा, साक्षात्कार व पब्लिक सेक्टर एनाउंसमेंट इत्यादि कुछ ऐसे कार्यक्रम है जो बच्चे, नौजवान, वृद्ध सभी के लिए विशेष समय या कुछ समय अंतराल पर कार्यक्रम प्रसारित किए जाते है। यदि किसी गांव में सैर करने का आप को सौभाग्य प्राप्त हो तो किसी घेर में पेड़ के नीचे पड़ी खाट पर किसी वृद्ध को, बरामदे में पड़े तकत पर किसी नौजवान को, गांव में छोटी-छोटी किराना की दुकान में, झुंड में बीड़ी पीते लोगों को, नाई की दुकान में, गांव के बीच बने चौतरे पर ताश खेलते लोगों को रेडियो सुनते हुए बड़ी आसानी से देखा जा सकता है। रात के समय स्कूल, कॉलेज में पढ़ने वाले नौजवान अपनी पढ़ाई पूरी करने मनोरंजन करने की सोचते हो या जब शाम में खाना खाने या खाना बनाने वाली स्त्रियां मनोरंजन करना चाहती हों ! ताऊ-बाबा-चाचा जब किसी अपने विशेष कार्यक्रम को सुनना चाहते हों ! तो ऐसे में छोटे से लेकर बड़ो-बड़ो के हाथ रेडियो के उस बटन तक पहुंच जाते है जहां तकनीकि का इस्तेमाल कर रेडियो तरंगों को ध्वनि तरंग में परिणत कर आनंद लिया जाता है। इस बेतार वाले इंफोटेन्मेंट के साधन ब्लाइंड मीडिया को भारत में 1927 में रेडियो क्लब द्वारा लाया गया। 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लाइसेंस रद्द हो जाने के बाद आज तमाम मनोरंजन के साधनों के बीच संकट के दौर से गुजरते हुए आज लगभग सात दशक बाद रेडियो 98%  लोगों के बीच मौजूद है।   
आज हर जेब में रेडियो है! घंटो मोबाइल चार्जिंग पर लगे रहने के बाद फिर एक लीड मोबाइल में लगाकर रेडियों के विभन्न ध्वनियों को इस छोटे से यंत्र में आमंत्रित कर खुद को मनोरंजित करते हुए हर्षित, प्रफुल्लित व नवीन उर्जा के श्रोता कच्ची गलियों के गलियारे में घूमते हुए गांव से मुम्बइयां गाने से लेकर देहाती लोक गीतों की सैर कर कर आतें हैं। जो भारत जैसे ग्रामीण प्रधान देश के लिए अति महत्वपूर्ण और सहायक है।

सुरेद्र कुमार अधाना

गांवों में अलग है मनोरंजन की दुनिया

संचार क्रांति के इस दौर ने मनोरंजन की परिभाषा ही बदल डाली है। जहां नित नए उन्नत साधनों के बीच हम खुद को मनोरंजित होए बिना रह नहीं सकते। वहीं ग्रामीण परिवेश आज स्वयं को उन सभी पुराने मनोरंजन के साधनों से स्वयं को जोड़े हुए हैं। जो पुराने समय से यू ही चलते आ रहे है या यू कहें की बड़ो की देन है। सदियों से यू ही बहुत से साधन मनोरंजन के रूप में लोगों की जीवन क्रिया में शामिल हैं। मनोरंजन करने, या उसे इंजाय करने का एक विशेष महत्व है। जो जगह, स्थान, परिवेश के अनुरुप बदलता और परिवर्तित होता रहता है। जो कि मानव जीवन के सुकुन भरे पल का एक विशेष पड़ाव है। मनोरंजन समय, मौसम, आयु वर्ग, त्योहारों पर भी भिन्न-भिन्न तरीकों से खेला और पसंद किया जाता है। जहां तक समय की बात है तो ग्रामीण जीवन में गर्मियों का अलग ही महत्व है। ऐसे में बच्चों की स्कूल की छुट्टी, गन्ना की खेती करने वाले प्रदेशों में लोग गर्मियों में फसल की बुआई के बाद के बचे समय में किसान, ग्रामीण मनोरंजन के नए साधनों से दो-दो हाथ करते देखे जा सकते हैं। जो कि फसल बड़ी होने तक सतत् चलता रहता है। रघुवीर, किसान गांव-जानी (मेरठ) ने बातचीत में बताया कि किसानों और ग्रामीणों का (जो गांव में ही छोटा-मोटा काम करते है जैसे दर्जी, किराना) का दोपहर का अधिकांश समय ताश खेलने, लूडो, सांप सीढ़ी, रेडियो सुनने में जाता है। साथ ही इसी समय में आराम भी किया जाता है क्योंकि किसान का कार्य दिन-रात चलता रहता है। ऐसे में मनोरंजन और कब मनोरंजन नहीं करना है इसका समय निश्चित नहीं है  इसी समय एक बहुत बड़ा वर्ग दोपहर में जाग रहा होता है। वह है बच्चा पार्टी जो कि कभी भी बंध कर नहीं रह सकता। गांव में जिन सभी का बचपन बीता होगा। सभी इस बात को भली-भाति जानते पहचानते होंगे। बच्चों के अनेकों मनोरंजन के साधन और खेल हैं । वह जब चाहे मन बना लेते है और निकल पड़ते है। खेलने, मौज-मस्ती करने, जिन गांवों से नहर या बड़ी नदी होती है वहां के युवाओं में पानी में नहाना, पानी में छलांग लगाना, कूदन या घंटों पानी में डूबे रहना ज्यादा पसंद किया जाता है। इसके अलावा बच्चों के अनेक मंनोरंजन के ऐसे साधन है जो कि अजीबों गरीब भी है और मनोरंजन से भरपूर भी। उनमें गिल्ली-डंडा, कंचे, पर, ताश (बच्चों द्वारा महनत से इक्ट्ठा किए हुए), क्रिकेट, खुड्डी-खुड्डा, कॉय-लकड़ियां, भागने-छूने, छिपने-ढूंढने, खो-खो आदि ऐसे अनेकों खेल हैं जो कि हर उस सक्श को ग्रामीण परिवेश में खींच कर उसके बचपन तक ले जाता है जो कि किसी ना किसी रूप में गांव से जुड़ा हुआ हैं। मेरठ शहर के करीब 21 किलोमीटर दूर बसा गांव सिवाल में स्थित भौले-की-झाल पर रोज़ कई सौ की संख्या में युवाओं का जमावड़ा पानी में गौते लगाते हुए, इट्ठलाते हुए देखा जा सकता है। जो कि वहां के लोगों के लिए खाली समय में मनोरंजन का साधन के रूप में देखा जा सकता है। कुछ युवा आपस में प्रतियोगिता करते हुए भी देखे जा सकते है। जिसमें तैराकी, ऊंची कूद, पानी में देरतक सांस रोकना आदि रोमांचक और खतरों से भरे खेल खेलने की ललक युवाओं को देखी जा सकती है। भौले-की-झाल पर न केबल आस-पास के गांवों के लोग ही नहीं दूर दराज के क्षेत्रों से भी युवा यहां मनोरंजन के लिए आते है। मेरठ शहर से नजदीक होने के यहां के युवा वॉटर पार्क न जाकर भौले-की-झाल जाना ज्यादा पसंद करते है। यह स्थान आस-पास बसने वाले लोगों के लिए सस्ता और कम समय में ज्यादा रोमांचित और पसंदीदार स्थान के रूप में है।
इसी समय कुछ महिलाएं आराम कर रही होती है, तो कुछ काम में वयस्त होकर बातचीत करते हुए अपने दोपहर का समय इंजाय करती है। कुछ महिलाएं मनोरंजन से दूर खेते में पुरुषों से साथ काम काज में हाथ-बटाते हुए महनत करती हुई देखी जा सकती है। जिन परिवारों में महिलाएं खेतों में कार्य नहीं करतीं वह घर में बहुत से कामों में सहभागिता दे किसी अन्य कार्य में वयस्त रहती हैं। गांव की परिभाषा हम शहरी लोगों की नजरों से देखने में बहुत ही सुखद लगती है। हम बहुत ही अच्छा महसूस होता है। लेकिन वास्तविक धरातल पर गांव के जीवन, महनत, लगन, त्याग, प्रेम और सुंदरता के पीछे बहुत से ऐसे राज़ है जो कि एक किसान परिवार या किसान परिवार के सदस्य होने के नाते आप समझ सकते हैं। यदि हम गांव उसके परिवेश और मनोरंजन को सोचे तो मनोरंजन जैसी चीज़ गांव में बच्चों के लिए सबसे ज्यादा होती है, उसके बाद घर में कामकाज करने वाली महिलाएं, उसके बाद पुरुष और बाद में वह महिलाएं आतीं है जो खेतों में कामकाज करतीं है। क्योंकि खेतों में काम काज करने के बाद घर के सारे काम काज ज्यादातर उसी महिलाए के कंधों पर ही होता है। यदि कोई दूसरा हाथ बटाने के लिए ना हो तो ऐसे में काम काज से निपटे के बाद ऐसा कोई भी सक्श नहीं होगा जो आराम नहीं करना चाहेगा। लेकिन कुछ आज के ग्रामीण परिवेश में परिवर्तन देखने और महसूस करने को मिले है। कि कुछ परिवारों में जहां खेती-बाडी का काम या तो कम है या केवल मर्द ही करते है वहां की महिलाएं खाली समय में टीवी देखती नज़र आई हैं। यह संचार क्रांति का ही प्रभाव है जो कि घर-घर तक पहुंच गया है। कुछ महिलाएं हाथ में नैय (छोटे आकार का हुक्का) लेकर गुडगुड-गुडगुड करतीं और नए जमाने के फैंनशी गाने हुक्का बार को आधुनिकता से जोड़ने के पीछे के भ्रम को तोड़ती नजर आतीं हैं। बाबा-दादा भी कुछ पुराने किस्सों को एक दूसरे से सांझा करते हुए.... खाट पर बैठ कर... हाथ में बीड़ी और हुक्के का पाईप लेकर ईंजाय करते हुए देखे जा सकते हैं। ये कुछ ऐसी चीजें है जो कि एक गांव से दूसरे गांव तक समान रूप से देखी और महसूस की जा सकती हैं।

-    सुरेंद्र कुमार अधाना, स्वतंत्र पत्रकार, मेरठ

Thursday 18 December 2014

बच्चों का क्या कसूर

पेशावर में तालिबान के आत्मघाती हमले में 132 बच्चों के मारे जाने की खबर मिली मन उद्वेलित हो गया। हर मानव जिस किसी को भी यह ख़बर मिल रही है, वह लम्बी आहें भर रहा है और यह सोच रहा है कि यह विश्व पटल पर क्या चल रहा है। नन्हें बच्चों से क्या किसी को कुछ मिल सकता है। क्या नन्हें बच्चें किसी को खटक
गूगल की सहायता से फोटो लिया है। - Google image
सकते है। क्या बच्चों का खून बहा कर बदला लिया जा सकता है। सैन्य स्कूल की इस घटना से समस्त जनता लम्बी सांसे भर-भर कर घटना को अंजाम देने वाले लोगों को कोस रहे है। बच्चे मन के सच्चे कहे जाते है। बच्चों से अपने तुच्छ स्वार्थों को अंजाम नहीं देना चाहिए। बच्चे हम सब के लिए एक समान है। उनकी कोई जाति, संस्कृति या धर्म नहीं होता। धर्म हमारा होता है और हम सब उनको अपने अनुरूप नाम, जाति और पहचान देते है। ऐसे में उनका कोई कसूर नहीं। हम मानव है और हर मानव का कर्तव्य है कि वह मानव जाति को जीने दे... बढ़ने दें..., अपने कर्तव्यों को पूरा करने दें...। माता-पिता चाहे कैसे हों वह अपने बच्चों का उज्जवल भविष्य चाहते है। हर मां-बाप बच्चों को प्यार करते है, दुलार करते है और कुछ अच्छा करने की प्रेरणा देते है। ऐसे में ये कुछ असामाजिक तत्व ना जाने क्यू। सामाज की आवो-हवा को बिगाड़ना चाहते है। बच्चे बड़ो की आंख का तारा होते हैं। किसी की आस होते हैं किसी का सहारा होते हैं किसी के जीने की आस होते हैं। किसी का सारा संसार होते हैं। ऐसे में उन्हों चोट पहुंचाने का मतलब शायद सोचा नहीं जा सकता है। यह सब करना ओछी और छोटी मानसिकता है। जिस को बदलने की जरूरत है। अधिकांश देश इस घटना को लेकर चिंतित हैं। पाकिस्तान में ही इसी घटना को लेकर कड़ा विरोध है और वहां तीन दिन का राष्ट्रीय शोक शुरू हो गया है। पाक. प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने वहा तीन दिन के लिए राष्ट्रीय शोक की वजह से पाकिस्तान का राष्ट्रीय ध्वज आधा झुका दिया है। साथ ही विश्व भर में ज्यादातर स्कूलों में सुबह की सभा में मौन रखा गया और द्विंगत आत्माओं की शांति के लिए प्रार्थनाएं की गई है। इस घटना की भारत में कई प्रांतों में बड़ी भ्रत्सना की जा रही है। विभिन्न शहरों में लोगों द्वारा हमले की निन्दा की जा रही है।  लोग एकजुट होकर कैंडल मार्च निकाल रहे है। मानवता... मानव में जीनी चाहिए। नहीं तो यह नीच कार्य होते रहेंगे। यह व्यक्तिगत विषय नहीं है आंतरिक शुद्धिकरण का विषय है।


-सुरेंद्र कुमार अधाना।   

Saturday 6 December 2014

भूख

भूख कई तरह की होती है। कई तरीकों से इसे परिभाषित किया जाता है। लेकिन बात पेट की भूख की हो रही है। भारत जो किसानों का देश कहा जाता है। किसान द्वारा ही सबसे ज्यादा पोष्टिक वस्तुएं ऊगाई जाती है। उन्ही के हाथों से होती हुए। पूरे भारत के लिए उपलब्ध होती है। क्या किसी न इस पर गौर किया कि किसान जो की सब्जी, फल, फूल का जो उत्पादन करता है वह स्वयं के लिए उन्हीं किस अनुपात में इस्तेमाल करता है या नहीं करता है। शायद हम इस पर गौर नहीं देेते है। जो ग्रामीण भूमि से इत्तेफाक रखते होंगे वो शायद इस मर्म को जानते होगें और कारण से भी परिचित होंगे। खेर अपनी बात पर आता हूं। भूख पर आज लिखने के लिए विषय कोई बहुत नया नहीं है बहुत कुछ इस विषय पर हो चुका है और मानव अधिकारों के लिए एक बड़ा मुद्दा भी है। बात ये है कि मैं जिस शैक्षिक संस्थान में पढ़ाता हूं वहीं बाहर घूम रहा था, फॉन पर किसी परिचित बात कर रहा था। तभी देखा की बिल्डिंग के ठीन नीचे बने पार्क बहुत अच्छी हरी-हरी घास उगी हुई थी और 48 साल की एक महिला उस घास को साफ कर रही थी पता नहीं क्यू मेरी नज़र उसके घास उखाड़े के तरीकों को देख रही थी, मैं कुछ समझ पाता तभी उस महिला ने हाथ की घास को मुहं में रख लिया और उसे खाने लगी। मैं देख कर भौचंग रह गया। मैं उस की भूख को समझ रहा था शाम लगभग 3.30 का समय होगा उस महिला को भूख लग रही होगी। किसी के यहां पार्क में घास साफ करने का मतलब है कि महिला की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं होगी।लेकिन जिस देश में 100 रुपये से अधिका का एक किलों पानी का मोल होने के बाद भी उसी जल को पीते है और वही देश का एक ऐसा तबका भी है जो अपनी पेट की आग को घास फूस से मिटा रहा है। मन उद्वेलित हो गया। कुछ पुरानी यादें एका-एक करके याद आने लगी गांव के कुछ लोगों की स्थिति पर मेरी यादें ताजा होने लगी। बात बहुत छोटी सी नहीं है। हम जब देश, दुनिया और अंतराष्ट्रीय विषयों की बात करते है और हमारे बगल में कोई भूखा मर रहा होता है। तो कैसा लगता है। हम अपने घरों की रसोई में बहुत सा सामान इस लिए डस्टबिन में फेक देते है कि उसमें से बदबू आ रही है। कुछ लोग उसे भी अपना लेते है। यह लोगों के हालात और मजबूरी पर निर्भर करता है। हम आस-पास के लोगों के पेट को नहीं समझे हम आए दिन अपने घर में बनी चीजों को पॉलिथिन में भर कर फेंक देते है। क्यों कि वह खराब हो चुकी होती है हम सब जानते है कि हर चीजं कुछ समय बात खराब हो जाती है यदि हम उसे इस्तेमाल नहीं कर पा रहे है उस चीजं को गलने, सड़ने और दूषित होने से पहले यदि किसी व्यक्ति को वह भेट कर दिया जाए तो उ,स का सुदुपयोग हो सकता है। जिसमें हम अपनी तेजी से भागती जिंदगी में शामिल नहीं कर पाते है। हम क्यों भाग रहे है कहा भाग रहे है, किसके लिए भाग रहे है। इन सभी पर विचार करने की जरूरत है। हम देश के नागरिक है हमारे कुछ कर्तव्य भी है उन्हें भी पहचाने और आगे बढ़ते रहे।
जय हिंद।। 

Tuesday 30 September 2014

ग्रामीण एकता का प्रतीक है “हुक्का”

हुक्के का अंदाज़, रूतबा, रंगत अलग ही है। हुक्के के साथ बैठक में जब मूढ़े, खाट और कुर्सियों पर चार-पांच आदमी बैठ जाते है तो बातों के बहाव में हुक्का गुडगुडाते हुए सभी संगी-साथी हजारों मीलों की यात्रा कर आते हैं। टटार दोपहरी में वृद्ध पेड़ के नीचे, घर के आंगन में, घेर के चौतरे, कच्ची मिट्टी/धरती पर गांव के किसी सामुहिक चौपाल में यह दृश्य आज आम नहीं है। इन्हें देखने के लिए किसी दूर-दराज के ठेठ गांव की सैर करके ही देखा जा सकता है। आज हुक्के का चलन घट रहा है। लोगों की आर्थिक स्थिति और रहन-सहन में आए बदलाव के साथ हुक्के के इंस्तेमाल में भी बदलाव आया है। स्वास्थ्य के लिहाज से यह अच्छी ख़बर है क्योंकि तंबाकू को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना गया है। लेकिन एक ग्रामीण परिवेश की पहचान का अहम तत्व हुक्का अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। लिहाजा जिन घरों में कभी किसी बुर्जुर्ग द्वारा हुक्के का उपयोग किया जाता था। वहां आज या तो हुक्के का इस्तेमाल खत्म हो गया है। या कही-कही उस व्यक्ति की याद में या उस आबो हवा को बनाएं रखने के लिए हुक्का पीने की परम्परा का रिवाज भी कई गांवों की संस्कृति में शामिल है।
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आग और पानी को देवता तुल्य माना गया है। और इन दोनों को एक ही स्थान पर पाकर इसे घर की सम्पन्नता और समृद्धि का प्रतीक मान कर ग्रामीण परिवेश में पूजा भी जाता है। प्राचीन काल से ही हुक्का भारतीय संस्कृति में अपना गौरवमयी तथा गरिमापूर्ण इतिहास रखता है। उत्तर भारत के लगभग सभी प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में हुक्के का  ग्रामीण जीवन से गहरा संबंध है। यह कह पाना मुश्किल है कि हुक्के का जन्म कब और कहां, किन परिस्थितियों में हुआ, मगर हुक्के का निर्माण बड़े ही व्यचारिक तरीके से हुआ है इसको नकारा नहीं जा सकता। हुक्के की अपनी अलग मान-मर्यादा है। हुक्के के  पीने व भरने के भी कायदे-कानून है। मौजूदा लोगों में सबसे कम उम्र वाला शक्स ही हुक्का भरता है और सबसे बड़ी आयु का व्यक्ति या मेहमान ही हुक्के का पानी निकासी के साथ पहला कश लगाता है। कई गांवों में यह परम्परा है कि जब तक मेहमान को हुक्का ताज़ा कर के (ताजा पानी डालकर) न दिया जाए, तब तक महमान का सम्मान अधूरा माना जाता है। अर्थात हुक्का मान-सम्मान का भी प्रतीक है। हमारे ग्रामीण कुटुंब में आपसी मतभेद को भुलाकर हुक्के को पीने के लिए बैठ जाना आम बात है। हुक्का आपसी भाईचारे का भी प्रतीक है। किसी भी खुशी या गम में हुक्के का समान रूप से प्रयोग होता है। हुक्का पीते हुए उसके चारों ओर बैठकर घर-परिवार-गांव आदि की विभिन्न समस्याओं पर चर्चा करना भी आम बात है और इस तरह के चौपाल गांव की शौभा में चार चांद लगाती है।
   न्यायिक चौपाल या पंचायत में भी हुक्के का इस्तेमाल किया जाता है। आस्था के तौर पर जब किसी अपराधिक व सामाजिक परंपराओं को तोड़ने वाले व्यक्ति को सामजिक बहिष्कार किया जाता है तो ऐसे में उसका हुक्का पानी बंद कर देना सर्वमान्य है। जो उत्तर प्रदेश, हरियाणा व राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में सामान्यत लागू है।
हुक्के की बनावट पर भी समय समय पर विकास कर उन्हें और सुंदर और आकर्षित बनाने की कवायत में कई आकार-प्रकार के हुक्कों का निर्माण प्रचीन काल से देखा गया है। हुक्‍के के प्रमुख हिस्‍से नेचा, कुफली, मुंहनाल, गट्‌टा, पेंदा, तवा तथा चिलम है। पहले हुक्के मिट्टी व लकड़ी के बनाये जाते थे, मगर आधुनिकता के युग में ये पीतल और लोहे के रूप में भी उपलब्ध है। मिट्टी और लकड़ी वाले हुक्कों में पानी ज्यादा देर तक ठंडा रहता था, अतउसे बार-बार बदलने की आवश्यकता नहीं होती। हुक्का भरना भी एक कला है। हुक्का भरने के लिए पहले हुक्के पर रखी चिलम में तंबाकू डालकर उस पर मिट्टी का एक छोटा दीया ढ़ककर आग डाल दी जाती है तथा गर्म होने पर तंबाकू जलने लगता है और कश लगाने पर धुआं पानी में फिल्टर होकर दूसरी नली से सेवनकर्ता के मुंह तक पहुंचता है। धुंए में मिश्रित निकोटिन पानी के प्रभाव में आने के बाद मनुष्य के स्वास्थ्य पर कम भी प्रभाव डालता है। यूं तो ध्रूम्रपान सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, मगर 'हुक्के' का ध्रूम्रपान सेवन का एक व्यक्तिगत स्वरूप माना जाता है। जोकि वातावरण को कम प्रभावित करता है। हुक्का खुली जगह पर बैठकर पिया जाता है। अत: घर परिवार के अन्य व्यक्तियों के प्रभाव से यह एक गंभीर दूरी बना कर रखता है। जो छोटे बच्चों या घर परिवार के सदस्यों के स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित है।  हुक्के में इस्तेमाल किए जाने वाला तंबाकू बनाना और एक निश्चित मात्रा में उसे इस्तेमाल करना एक कला है। अलग-अलग अवसरों पर या भिन्न-भिन्न उम्र वर्ग के व्यक्तियों के लिए अलग मात्रा में तंबाकू इस्तेमाल किया जाता है। ताकि सभी की सेहत को ध्यान में रख कर मेजबानी की जा सके। गांवों में इस्तेमाल होने वाला देशी तंबाकू गांव में ही प्रचीन नुकते से तैयार किया जाता है। जिसमें तम्बाकू के पौधे को सुखाकर मुस्सल से कूटा जाता है, उसमें गुड़ या गुड़ से बनी लाट मिलाई जाती है, जिससे निकोटीन का प्रभाव कम किया जा सके।
इतिहास के कुछ पन्ने पलटे या बुजुर्गों की बातों पर गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि हुक्का राजाओं, महाराजों, अमीर, बादशाहों की बैठकों से जुड़े थे। अकबर और जहांगीर के राजदरवारों में हुक्का पीने के लिए बड़े आयोजन किए जाते थे। हुक्‍के के बिना महफिलें सूनी मानी जाती थी। हुक्‍का सब की पसन्‍द होता था। हुक्‍के को गरम करने, तैयार करने के लिए राजमहलों में विशेष नौकर हुआ करते थे। ना-ना प्रकार के हुक्कों का इतिहास हमारे प्रचीन में मिलता है जिसमें हुक्‍के मिट्‌टी, लकड़ी, चांदी,  सोना आदि धातु से बनाएं जाते थे। मुगल काल में हुक्‍कों पर नक्‍काशी का काम होता था। इतिहास की किताबों में बने चित्र इसका प्रमाण देते है। प्राचीन हुक्‍के आज भी संग्रहालयों में संग्रहित हैं। जिनकी शोभा देखे नहीं बनती। राजा अपनी पसन्‍द के अनुसार हुक्‍के और तम्‍बाकू का प्रयोग करते थे। तम्‍बाकू में खमीरा, अनानास, सेब, लोंग, जाफरान, अंगूर व खुशबू के लिए गुलाब, चंदन, मोगरा और फूलों के सूखे पत्ते खुशबू के लिए इस्तेमाल किए जाते थे। हुक्‍का सामूहिक जीवन शैली का अनुपम उदाहरण है। हुक्‍का समाज को जोड़ने का महत्‍वपूर्ण काम करता है। हुक्‍का एक नशा या व्‍यसन नहीं एक शिष्टाचार है। हुक्‍का जीवन में भाईचारा, एकता, सहयोग की परम्परा का विकास करता है। हुक्‍के के सहारे चौपाल में बैठ छोटे-मोटे झगड़े सुलझ जाते हैं। सजा के तौर पर हुक्‍के का पानी पिलाएं जाने का रिवाज आज भी भारतीय समाज में मौजूद है।
बुजुर्गों का मानना है कि हुक्का निरोगी है। इसके इस्तेमाल से कफ जैसी गंभीर बिमारी व पाचन तंत्र को दुरुस्त करने का देशी नुकता कहा जाता है। घौसीपुर निवासी किसान मंगत बताने है कि त्योहारों में बड़े-बड़े हुक्‍के इस्तेमाल में लाए जाते थे। गंगा स्थान, दशहरा, होली, ईद व शादी के अवसरों पर हुक्के का इस्तेमाल आम बात थी। सभी बिरादरी के लोग एक साथ भाईचारा, प्रेम और सौहार्द के साथ त्योहारों की तैयारियों की बात करते थे। आज भी शादी-विवाह के दौरान बिना हुक्का सिलगाएं ग्रामीण शादी फीकी लगती है। भारतीय हुक्‍के विदेशों तक लोकप्रिय है। पर्यटक भारत आते हैं और यहां से देशी हुक्‍का लेकर जाते हैं। समय के बदलाव के साथ हुक्के की गुडगुडाहट ने भी एक तीर्व परिवर्तन की करवट ली है, जो कि आज आधुनिक जगत में हुक्का पार्लर के रूप में जानी जाती है। शहरी आबादी भी अब हुक्के की शौकीन है। लेकिन गांव के देशी हुक्के की आन, बान और शान अलग ही है। ग्रामीण परिवेश में जितनी इज्जत बैठक के सिराने को दी जाती है। उतनी ही इज्ज़त हुक्के के प्रथम कश को समान रूप से दी जाती है। इस मायने में ग्रामीण हुक्का शहरी हुक्के से कई गुना शुद्ध और पवित्र माना गया है। हुक्के को मौज-मस्ती का भी प्रतीक माना गया है जो कि ग्रामीण बोली में उक्त रूप से प्रस्तुत है।
कामी चल दिया काम कू, हुक्का लीना साथ। आग सिलगती देखकर, फूल के हो ग्या गुफ्फा, 
काम जाए सो जाए पहले पिएंगे एक चिलम हुक्का।।

Tuesday 23 September 2014

चकोर हर गांव में हैं, लेकिन उड़ान नहीं भर पाती :(


टीवी की दुनिया और टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले सीरियल की बुनिया तो.... सही नव्ज़ को पकड़ती है, लेकिन उसकी पगडंडी भोतिकवाद के वृत में ज्यादा देर तक एक क्षितिज में नहीं चल पाती। कर्ल्स पर प्रसारित उड़ान में चकोर की भूमिका हर गांव, हर देहात और हर उस नुक्कड़ के कुछ कदमों पर देखा जा सकता है। जहां पानी की किल्लत होती है। वहां ढे़र सारी चकोर पानी भरने के लिए आती है। यह चकोर गांव के उस सरकारी नल पर देखी जा सकती है। जहां गरीबी के चलते घरों में नल नहीं होता और बहुत सारी चकोर और उनकी माताएँ अपने दिन भर सारे काम काम तेज तपती दोपहरी में नल के आसरें से निपटाती है। कपड़े धोने, सुखाने, जानवरों को पानी पीलाना नहाना और बाद में अपने घर के काम काज के लिए घंटों पानी भर-भर के उसे अपने घरों तक ले जाना। चकोर शहर में सड़कों के किनारे बसी बस्तियों में देखी जा सकती है। जो इतनी ताकतवर और महबूत होगी है कि पुरुषों के साथ लोहें के आकार को बदलने और उन्हों लोगों की जरूरत के हिसाब से आकार देने के काम में बराबर की हिस्सेदारी की मिशाल है। चकोर मंदिरों के बाहर लगीं लाईन में देखी जा सकती है। जहां वह एक गरीब से भगवान की मूर्ति को लेकर दुनिया को यह दिखाने का प्रयत्न करती हैं कि जो लोग गरीब होते है उनके भगवान भी गरीब होते है और उस भगवान का साथ लेकर वह पूरे दिन अपने पेट की भूख को मिटाने के लिए इधर-उधर जो भी इस लायक लगता है कि वह उसकी मदद कर सकता है उसकी ओर दौड़ पड़ती है। चकोर की यह परिकल्पना नयी नहीं, बहुत पुरानी है। यदि आप ढूंढने का प्रयत्न करेंगे तो आप को बहुत से ऐसे लोग मिल जाएंगे जो एम.पी. साहिबा की भूमिका निभा रहीं हो और उनका बचपन कहीं ना कहीं चकोंर की तरहा रहा हो। 

खेर इस बात से शायद आप इतेफाक न रखे लेकिन यह चकोर बहुत से ऐसे लड़के के रूप में भी देखी जा सकती है। जो किसी चाय की दुकान पर मन मार कर किसी कारण से अपनों को कई सालों से संझाते हुए आ रहे होगे कि आप यह आखिरी दिन है। कल आखिरी दिन है लेकिन वो आखिरी दिन की शुभ घड़ी नहीं आ पाती। आप को बहुत से ऐसे चकोर भी मिलेगे जो अपने घर की स्थिति को सुधारने के लिए चकोर का रूप लिए हुए होंगे। बहुत से ऐसे चकोर आप को किराना की दुकान, सब्जि की दुकान, ढावों, ट्रकों पर और फैक्ट्री तो चीजें उत्पादित करतीं है, लेकिन उत्पादक का सारा काम  काज इनके नन्हें हाथों से होकर आता है। ऐसे डी.एम. भी हर जिले में हैं जो हर चकोर को उड़ान देना चाहते है, लेकिन कितनी चकोर को पार लगाए। टीवी सीरियल में तो एक चकोर है उसे एक दिन कोई-कोई सहारा दे देता है, क्योंकि यह पर्दें की दुनिया है। यहां हंसाने वाला कॉमेडी नाइट विद कपिल का सेट जलता है तो करोड़ो का सहयोग प्राप्त हो जाता है। लेकिन इन चकोरों को साधा जाता है। हितों की पैमाने पर जिन्हें कभी किसी भी उड़ान का हिस्सा नहीं बनाया जाता है। हौंसले सब रखते है। ऊर्जा सब रखते है। पंखों में जान सबके होती है, लेकिन वह इतने विशाल नहीं बन पाते की ऊची उड़ान भर सके। उन्हेें सीमित किया  जाता है। आर्थिता के रूप में, कभी हुनर के रूप में तो कभी प्रतिस्पर्धा के रूप में उड़ान भरने के लिए एक प्लेफार्म की जरूरत होती है। एक सहारे की जरूरत होती है। वह सहारा सभी चकोरों के नहीं मिल पाता है और बहुत सी चकोर चकोर बन कर रह जाती है। समय आगे बढ़ जाता है। और उड़ान समाप्त हो जाती है। बिना ऊंचाइयों को छुए।  © सुरेंद्र कुमार अधाना...

Wednesday 17 September 2014

अपनों के बीच बेगानी हिन्दी !

गली, मोहल्ले, नुक्कड़ आदि की दिवारों पर गौर फरमाएं तो अंग्रेजी सीखने और चंद घंटों में आप को पारंगत करने के दावे ठोकने वाले वाक्य आप को आसानी से मिल जाएंगे। कुछ लोग उनसे प्रभावित होकर उनसे जुड़ भी जाते है और अपनों को अंग्रेजी में होशियार समझने की दौड़ में शामिल हो जाते है। इन सब से हमारी आंशिक पूर्ति तो हो जाती है, लेकिन संपूर्ण पूर्ति नहीं हो पाती है। सम्पूर्ण पूर्ति के लिए या तो हम पूर्ण रूप से अंग्रेजी को जानना होता है या फिर पूर्ण रूप से हिन्दी को।
कभी-कभी प्रतियोगिताओं में भी अंग्रेजी का पर्चा बहुत परेशान करता है। अच्छों-अच्छों का पसीना छूट जाता है। जब बात हिन्दी की आती है। तो हम सब एक ही सांस में कहते है, ये भी कोई पेपर ये तो आसानी से हो जाएगा। बाद में पता चलता है कि अंग्रेजी में हाथ तंग होने के बाद भी हिन्दी में कम नम्बर आएं है। ऐसे में हिन्दी को आसान समझकर या दोयम दर्जें का स्थान देकर हम आगे निकल जाते है। हमारी हिन्दी पीछे छूट जाती है और वर्तमान में हो भी यही रहा है। हम हिन्दी की बिन्दी तक पर ध्यान नहीं देते और कहते है यह भी कोई पढ़ने की चीज़ है। मुझे तो इंग्लिश नोवल चाहिए। मेरी भी अलमीरा में बहुत से अंग्रेजी नोवल है आज भी वह पुकार करते है कि उनके ऊपर लगी पेकिंग कोई तोड़े और उन्हें पढ़ ले, लेकिन कुछ हिन्दी के नोवल आज भी कई लोगों के हाथों से होकर मट-मैले होकर एक हाथ से दूसरे हाथों तक पहुंच रहे है। लेकिन यहां पर प्रश्न उठता है क्या वाके ही हिन्दी नोवल पढ़े जा रहे है। शायद नहीं ! आज-कल युवाओं की हिन्दी नोवल पढ़ने की जिज्ञासा कम देखी जाती है। जितने लोग हिन्दी किताबों या हिन्दी नोवल पढ़ते है भी उनके पीछे किसी ना किसी प्रभावशाली व्यक्ति का हाथ होता है या कुछ पाने या कर दिखाने की लालसा उन्हें प्रेरित करती हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं की हिन्दी को पढ़ने वाली की कमी हुई है। पढ़ने वाले मिलते है तो लिखने बाले कम मिलते है। हम अपनी बातों को व्यक्त करना का माध्यम तो हिन्दी रखेंगे लेकिन उसे प्रस्तुत अंग्रेजी के माध्यम से करेंगे। या अंग्रेजी के ढेर सारे शब्द वाक्य विन्यास को पूर्ण करने के लिए शामिल कर लिए जाते है। इसमें भी कोई दो राय नहीं की हम अपने बच्चों को हिन्दी वादी बनाना चाहते है। ऐसे बहुत ही कम लोग होंगे। सब चाहते है उनके लाड़ले अंग्रेजी जरूर जाने चाहे हिन्दी ना आएं तो कोई बात नहीं, क्योंकि अंतिम में उसे अंग्रेजी से बड़ी लड़ाई लड़नी ना पड़े। यूपीएससी ने सिविल सेवाओं में अंग्रेजी की आनिवार्यता को बनाए रखने के लिए अपनी आह्ताएं रख दी, लेकिन हिन्दी क्षेत्रों के युवाओँ का बड़ा विरोध का सामना करना पड़ा। यदि हम प्राइवेट स्कूलों की बात करें तो वह बच्चों से हिन्दी बोलने पर शुल्क तक लगाएं जाते है। यहां पर मंशा चाहे कुछ भी हो लेकिन यह सब छोटे-छोटे कारण है जो हिन्दी को पीछे छोड़ते है। हिन्दी से रोजगार की मार में वृद्धि हुई है। यदि कोई युवा अंग्रेजी जानता है और हिन्दी का जानकार नहीं है तब भी हर नौकरी के लिए काबिल है। लेकिन हिन्दी जानने के बाद भी लाखों काबिल लोग, योग्यता के आधार पर मुख्य धारा से दूर कर दिये जाते है। ये कसूर हमारा है या हिंदी का। जवाब कुछ भी हो मुसिबत हिंदी भाषी लोगों की है और हिंदी जानने की है। हमें यह सोचना होगा कि हिन्दी को किस आधार पर ले। कहीं -कही हिन्दी न जानने पर तो कहीं हिन्दी मात्र की अधिक जानकारी आप को ले डूब्ती, आप को अपनी नाम और नाव की योग्यता के पैमाने के साथ तालमेल बैठाना होगा। नहीं तो नैय्या पार नहीं लग पाएंगी। हिन्दी की अपनी सीमाएं है उन्हें पहचाने और आगे बढ़ते रहें। $KA 

Thursday 11 September 2014

केंद्रीकरण और महिलाएं

बात कहीं से भी शुरू हो और कहीं पर भी खत्म, महिलाओँ का जिक्र और महिलाओं की भागेदारी के बिना समाज में कोई बात पूरी नहीं होती। महिलाएं समाज में हर प्रकार से सभी मुद्दों का केंद्र है। समाज के सम्पूर्ण वातावरण में महिलाओँ की भूमिका अहम है। अनके कार्य असीमित है। उनकी कार्यशैली का कोई पैमाना नहीं। अनके अथाह प्रेम के सागर की कोई गहराई नहीं (असीमित)। महिलाओं को प्रेम का भंडार कहा जाता है। जो एक ही जीवन में अनेक कार्यों का निर्वहन करतीं है। कई भूमिकाओं को एक साथ निभाती है। अपने सुख-दुख की चिंता करें बिना समाज को आगे बढ़ाने का कार्य करतीं है। समाज निर्णाम में भूमिका अदा करतीं हैं। फिर भी यह समाज और उसके सामाजिक प्राणी उसकी अवहेलना करते है। उसके स्थान को हमेशा नीचे रखने का प्रयास करते हैं। आखिर क्यों ? यह समाज की देन है और जटिल सामाजिक चेतना की यह निर्मम हत्या है।समाज में बहुत सी अस्थिरताएं है। समाज की अपनी एक सीमा है। समाज की अपनी एक बनावट है और उसके कुछ नियम। इन नियमों की धूरी के आसपास घूमती महिलाएं, जब अपने क्षेत्र का विस्तार करना चाहती है तो यह पुरुष समाज आगे आ जाता है और महिलाओं के लिए लक्ष्मण रेखा निश्चित करता है। इसमें कोई दो राय नहीं की महिलाएं अपने में सिमट रहीं है। वह पुराने प्रतिमानों को तोड़ कर नए प्रतिमान गढ़ रहीं है। महिलाएं आगे निकल रही है और बड़े पदों पर बैठ कर दुनिया को नई मिशाल दे रहीं हैं। 

इन सब के बावजूद कुछ हाथ ऐसे भी है जो साकारात्मक अखल जगा रहें है। यह बहुत कम और सीमित है, जिनकी आह्वान की आवाज़ चंद दिनों और कुछ सौ किलोमीटर तक सिमट जाती है। इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि महिलाओं ने ही महिलाओं के आगे बढ़ने के रास्तों में कांटे बोए हैं। महिलाएं का इतना दुश्मन समाज नहीं, जितनी महिलाएं एक दूसरे के प्रति है। पता नहीं क्यों कई बार देखा गया है कि महिलाएं दूसरी महिला से द्वेश रखती है। पुरुष समाज महिलाओं के प्रति उतना भी कट्टर नहीं है जितना माना जाता है। व्यवहारिक तोर पर देखा जाए तो कई विदेशी वैज्ञानिकों ने यह शोध कर पता लगाया है कि जिन संस्थानों में महिलाएं और पुरुष दोनों काम करते है उन फर्मों की कार्य करने की क्षमता उन फर्मों से कहीं अधिक होती है। जहां मात्र पुरुष या मात्र महिलाएं कार्य करतीं है। समाज को दो पाटों में बांटने और आगे बढ़ने के रास्तों में अवरोधक का काम उन कुछ महिलाओं की देन है। जो आगे बढ़ चुकी है, लेकिन किसी दूसरे को आगे बढ़ता देखना नहीं चाहती है। समाज का यह एक कड़वा सच है जो समाज के हर घर परिवार में देखा जा सकता है ।  

महिलाओं की भूमिका के ऐसे अनेकों बड़े उदाहरण है जिसमें उन्होंने बहुत बड़ी कुर्बानी देकर समाज और देश के लिए अतुलनीय कार्य किए है, लेकिन इन सब के पीछे एक सच्ची सृद्धा और सोच होती है। जो समाज के हर तब्के में शायद नहीं पाई जाती है। महिलाएं समाज का अटूट और अहम हिस्सा है। जो कई समाजों को जोड़ने और उन्हें आगे ले जाने का कार्य करतीं हैं। यदि किसी समाज में शिक्षा का अभाव होता है, लेकिन उस समाज में रहने वाले लोगों के आदर्श बड़े हो और देश के लिए सच्ची सृद्धा हो तो, बिना सृजनात्मक शिक्षा-दीक्षा के भी बड़े आदर्शों के कार्य निस्वर्थ किए जाते है। आज शिक्षा व्यवहारिक नहीं है, सामाजिक नहीं है। बच्चों में माता-पिता और गुरुओं के प्रति रोष बढ़ रहा है। वह अपना रास्ता खुद खोजने में विश्वास रखने लगे है। ऐसे में लड़िकयों के लिए तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश में स्वयं को सिद्ध करने के लिए उन्हें खुद को कई नए रूप में ढ़लना होता है। माता-पिता अपने बच्चों को जो परिवेश देना चाहते, कभी-कभी परिवार के अन्य सदस्यों को वह सब खटकता है और बेटा और बेटी के लिए अलग-अलग प्रतिमान गढ़ दिए जाते है। दोनों के लिए अलग-अलग सीमाएं तय कर दी जाती है। ऐसे में बच्चों के अपने परिवेश, परिवार के अपने परिवेश और समाज के परिवेश में खुद को स्थापित करते हुए आगे बढ़ना होता है। लड़के खुद की स्वतंत्रता को खूब इंजोय करते है, लेकिन जैसे-जैसे लड़कियों की उम्र में विस्तार होता है उसी के अनुरूप उनके अधिकारों का केंद्रीकरण होने लगता है। धीरे-धीरे स्वतंत्राएं सिमटने लगती है। यह समाज की देन है जो खुद सामाज ने स्थापित की है और कई बार समाज खुद को भी इतिहास की तरह दोहराता है और समय के साथ कदम ताल न करने पर स्थितियां खुद को ढ़ाल लेती है। और समाज की चेतनाएं सीमट कर, नए परिवर्तन को स्वीकार कर लेती है। यह बात सत्य है। ... लेकिन इन परिवर्तनों को एक लम्बा सफर के साथ कई सदियाएं तक लग जाती है, लेकिन केंद्रीकरण की सीमाएं समय के साथ चूर-चूर जरूर होती हैं। जहां यह सब संभव नहीं हो पाता वहां केंद्रीकरण हावी रहता है और कई शक्तियां उसे  धवस्त करने के लिए छोटे-छोटे प्रयास में रहती हैं। ताकि परिवर्तन और आजादी का नया सवेरा का उदय हो सके।



Monday 25 August 2014

शिक्षा देना और न देने की रेखा

अमुमन देखा गया है, कि भारत में बहुत से लोग अभी भी पढ़ने का शौक रखते है। बुढ़ापे में उच्च शिक्षा के लिए आवेदन कर देते है। बहुत से लोग इस ताक में भी रहते है कि किसी विवि से ये फला कोर्स कर लें... कभी-कभी कई बार और कई विषयों में डिग्री प्राप्त करने का भी शोक लोगों में देखा गया है, लेकिन इन सब के बीच कुछ चीजें ऐसी हो जाती है। जिस पर केंद्र सरकार या राज्य सरकारें मौन रहती हैं। किसी व्यक्ति के अधिकार का हन्न कभी भी कर दिया जाता है। राज्य स्तर की परिक्षाओं के मानये कभी राजनीति से छोटे पड़ जाते है और राजनीति सब पर हावी हो जाती है। उच्च शिक्षा का भी वही हाल है, सरकारें  जब चाहों तब दुनिया भर के उच्च शिक्षा हेतु आवेदन मांग लेते है कभी-कभी कई सालों तक छात्र धक्के खाते रहते है, लेकिन विवि के मामले नहीं निपट पाते है। शिक्षा लेने और देने के लिए कोई उम्र नहीं, लेकिन भारत जैसे देश में यह सब एक उम्र तक उच्च शिक्षा प्राप्त कर ली जाएं तो ही ठीक है, यहां सामाजिक चीजों से भी आदमी की जिंदगी प्रभावित होती है ऐसे में शिक्षा के मायने बढ़ने के बजाए घट जाते है।
शायद किसी सीएम ने यह ब्यौरा लगाने की कोशिश की होगी कि क्यों हम कितने लोगों के जीवन से जुड़ी बड़ी उम्मीदों को नौकरी न देकर दो मिनट में खत्म कर देते है। ऐसे  बड़े उदाहरण मिल जाएंगे। जो शिक्षा, उच्च शिक्षा और नौकरी के नाम पर अपनी आर्थिक कमर तोड़े हुए है। सरकारे हजारों रुपयों के आवेदन के रूप में लेकर करोड़ो की कमाई कर लेती है और उनका जो फायदा शिक्षा के रूप में मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता।  जब कोई सरकार किसी भी स्तर पर कोई परीक्षा करातीं हैं, तो उस परीक्षा के कुछ साकारात्म परिणाम होने चाहिए, लेकिन होता कुछ ओर हैं, हित चाहे जिधर भी मोड़ने की कोशिश हो, लेकिन गलत नियत से किए गए काम कभी सही नहीं आके जाते । जो सरकारें इस तरह के कार्य करतीं है परिणाम शीघ्र सामने होते है। सरकारें किसी भी स्तर पर कोई भी परिक्षा कराएं उसका लाभ लोगों तक पहुंचना चाहिए। यदि नहीं पहुंचता है तो वह सरकार के कार्यों पर प्रश्न चिंह्न के साथ एक गलत नियत की ओर भी इशारा करतीं है।   © एस.के.ए.

Wednesday 4 June 2014

पेड़ों से अपना मतलब न निकाले...

विश्व पर्यावरण दिवस की आप सभी को कोई शुभकामनाएं नहीं देना चाहता लेकिन एक गुजारिश करना चाहता हूं कि अपने घर के आंगन से देखे, अपने बालकनी से देखे, अपने घर के सबसे अहम दरवाजे पर खड़े होकर देखों और अपने मन से पूछे। क्या आप वहीं देख रहे हो जो आप देखना चाहते थे। जो हरा भरा माहौल आप को ठंडक देता है। क्या वह आप के आसपास है यदि है तो आप जो महसूस करते है वह बहुत ही आंनदित होता है। और जिन लोगों का इनसब से कोई तालोकांत नहींं उनसे पूछो की पास की कालोनी में बने बगीजों को देखकर उनका मन क्या कहता है ? सब को हरा-भरा वातावरण पसंद है, बहुत से लोग इसको जी जान से पालते भी है  लेकिन एक अनार सो बिमार वाली लत सब गुड-गोबर एक कर देती है। पौधा...पौधा और पौधा ही बन कर रह जाता है। खत्म भी हो जाता है। बहुत कम ऐसे लोग है जो एक बार फिर नई उम्मीद को उस स्थान पर रौपते है लेकिन फिर भी यदि वह जगह खाली हो जाती है तो उम व्यक्ति का मन उद्वेलित हो जाता है। फिर नए उम्मीद शायद वहां नहीं पनपती, लेकिन व्यक्ति की मन की लालसा कही और रंग जरूर लाती है। वह पौधे को पेड़ बननाने के प्रयत्न में लगा रहता है।
कुछ लोगों को परिवर्तन से चिड़ है, कुछ लोगों किसी व्यक्ति हाथ से किए गए कार्य से चिड़ है, पेड़ से चिड़ करने वाले कम होने लेकिन मैं यकीन से कह सकता हूं कि पौधे को रौपने से उस पौधे को मारने वाले अधिक हैं।
माता जी कहती है कि आज का वातावरण मतलब है सब अपना मतलब निकालते है। यह सीख या भी इस्तेमाल होती है। जो पेड़ लगाते है उनका भी मतलब होता है और जो नहीं लगाते या कांटते हैं उनका भी अपना अलग मतलब होता । लेकिन बात पते कि बस इतनी सी है कि मतलब जाहे जो भी हो लेकिन वातावरण को हरा भरा बनाया जाए। चाहे मतलब के लिए ही सही। पेड़ लगाएं फल सीचने के लिए ही सही, पेड़ लगाए छांव के लिए ही सही, पेड़ लगाए लकड़ी की प्राप्ती के लिए ही सहीं लेकिन जरूर लगाएं। कुछ न हो से कुछ होना बहतर है..... अच्छा है..... और जो अच्छा कार्य होता है उसमें देर नहीं करनी चाहिएं। © एस.के.ए

Friday 24 January 2014

मेरठ की यातायात व्यवस्था से त्रस्त जनता

जाम के दौरान फुर्सत के माहोल में ये घोड़ा-तांगा चालक।
कहा जाता है कि किसी भी प्रकार की प्रगति तभी संभव है, जब उसतक पहुंचने का रास्त साफ हों !’ ऐसे में यदि प्रगति बाधिक होती है तो रास्ते भी सिमटने लगते हैं। मेरठ के कई ऐसे रास्तें हैं जिन पर जाना मुहाल हो गया है। कहीं नाले खुदे हुए हैं, तो कही नालों की सफाई न होने से कुड़ा-कर्कट जमा हो जाने से नाले जाम हैं, जहां-जहां नालों की सफाई हुई है वहां के नालों की गंदगी सड़क पर पड़ी हुई है, कही सड़के टूटी हुई है, तो कही सड़के के बीचों-बीच सिवेज लाईन की पुलिया बनाई हुई है, जिससे टकराकर कई व्यक्तियों की जान, माल को खतरा हो रहा है, कहीं बारिश का पानी भरा हुआ है, तो कही सड़के के किनारे नाली बनने का काम चल रहा है, जिनकी रोड़ी, डेस्ट सड़क पर बिखरे पड़े है, जिससे वहां से गुजरने वाले लोगों को परेशानियां उठानी पड़ रही हैं। इतना ही नहीं रोज-आना कई व्यक्ति उन सड़कों पर पड़ी गंदगी, सड़कों पर फैली रोड़ी-डेस्ट और पुलियाओं के इन उभार से टकराकर जनता चोटिल हो रही है। यह कुछ ऐसे कार्य हैं जो कि समय रहते हुए कर लेने चाहिए थे, लेकिन अभी भी अधर में लटके हुए है। मेरठ में पहले से ही रोहटा फलाइ-आवर ब्रिज का कार्य रुक जाने से सालों से जनता को दूसरे रास्तों से हो कर जाने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। लेकिन सिविल लोगों के इस जाम को राहत देने के लिए प्रशासन ने मेरठ कैंट का रास्ता खुलवा दिया था, लेकिन अब मेरठ छावनी की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कुछ रास्त अब बंद हो गए हैं। अब मलियाना पुल पर आवागमन अधिक बढ़ गया है। ऐसे में सफाई का कार्य, नाला निमार्ण कार्य और कई रास्तों के ओवर-लोड के चलते इस रास्ते पर हर वक्त जाम की स्थिति रहती है। जिसे टेम्पों चालकों ने और अधिक बढ़ा दिया है। ऐसे में स्कूले के बच्चों, कॉलेज के छात्रों, तथा काम-काजी व्यक्तियों को बहुत अधिक परेशानी उठानी पड़ रही है। ठंड के मौसम में जिस दिन अधिक बारिश हो जाती है  उस दिन सड़क किनारे पड़ी गंदगी सड़कों पर आ जाती है। जिससे वहां की जनता, व्यापारी और आवागमन की समस्याएं और बढ़ा जाती है। सर्द मौसम में यातायात की समस्यां के चलते टेम्पों चालक भी इसका फायदा उठाने से नहीं चूकते। जनता से किराये के रूप में टेम्पों चालक अधिक वसूली करने लग जाते है। यह सारी समयाएं केवल समय पर काम न किये जाने के कारण पनप रही है। यदि समय रहते इस सब को दुरुस्त कर लिया जाए तो शहर में यातायात संबंधी सभी समस्याओं का निपटारा किया जा सकता है। प्रशासन और नगर निगम के सभी पदाधिकारियों से गुजारिश है कि अपने क्षेत्र को आदर्श बनना के लिए जो जिम्मेदारी आप को दी जाती है, उसका शीघ्रता के साथ निपटारा कर लिया जाए। साथ ही इसमें यदि हम समय रहते कामयाब हो जाते हैं तो ऐसे में हम सब मेरठ को साफ, सुंदर और सुरक्षित बना सकते हैं।
सुरेंद्र कुमार अधाना  

परिवर्तन बनाम राजनीति

माना गया है कि परिवर्तन प्राकृति का नियम है। कुछ परिवर्तन खुद आते है। कभी-कभी परिवर्तन लाए जाते है जैसा दिल्ली में आया। वह परिवर्तन प्राकृति का नहीं था, नियोजित था। जिसके लिए सालों तक कड़ी तपस्या की गई और बदलाव की नयी परिभाषा गढ़ी। इससे सत्ता के नशे का भ्रम टूटा है, नयी ऊर्जाओं को जनता ने चुनकर राजनीति की मुख्य धारा में लाकर खड़ा कर दिया है। ऐसे में एक परिभाषा और बन कर ऊभरी है कि हमारा नेता कैसा हो। आम आदमी जैसा हो। इस नारे के साइड-इफेक्ट क्यों होंगें वह तो कुछ महीनों बाद ही पता चल पाएंगे, लेकिन हर चुनाव के दौरान लगाएं जाने वाले जय जयकार बदलाव की दहलीज पर करहा रहा है और अपने आदर्श नेता को खोज रहा है। फिर भी दिल्ली में सत्ता परिवर्तन की इस बयार ने और आम आदमी पार्टियों की हवा ने नेता की परिभाषा को समझने का प्रयास जरूर किया है। जिसके चलते गृह मंत्रालय से भी कुछ जनकारियां इस रूप में आने लगी की दिल्ली की सरकार को चलाने वाले सीएम को किसी बाहरी तंत्र से खतरा है। सो सीएम जेड-श्रेणी की सुरक्षा को ओढ़ कर खुद को सुरक्षित कर लें। लेकिन इन सब को ढुकरा देने वाले सीएम ने तंत्र को इस प्रकार हिला दिया कि पिछले महिने जो पांच राज्यों में चुनाव के रिजल्ट आए थे। उनमें नमो (नरेंद्र मोदी) की जयजयकार होना तय था, क्योकि पांच राज्यों में चुनाव हुए थे, जिनमें से तीन राज्यों में भाजपा की सरकार बनी, एक राज्य में कांग्रेस की और दिल्ली में भी भाजपा से कम वोट हासिल करने वाली पार्टी आप ने वो कर दिखाया जो भाजपा तीन राज्यों में जीत कर चौथे राज्य में सबसे अधिक वोट पाकर भी नहीं कर पाई। इसका सबसे बड़ा खामियजा नरेंद्र मोदी को हुआ। जब भाजपा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए चमकाने का काम कर रही थी। उस समय बिना किसी मेकअप के साफ छवि के चलते आम आदमी पार्टी चमक रही थी। ऐसे में कांग्रेस का सर्मथन आम आदमी पार्टी को जनता के विश्वास को जीतने का बड़ा हथियार साबित हुआ और आप राष्ट्र स्तर पर चमक गई। कांग्रेस की सही मायने में पीएम पद की दावेदारी के लिए रह गई है। दिल्ली में अपनी छवि को धूमिल होते देख कांग्रेस को एक झटका तो लगा ही है। लेकिन बड़े मैदान पर आकर कांग्रेस बड़ा खेल खेलने के लिए अपनी पुर्जोर ताकत के साथ सभी मजबूत पेत्रे जरूर अपनाएंगी। कांग्रेस का आप को समर्थन देना भी उसकी ताकत में शामिल है, जो कि काले धन, भ्रष्टाचार, जीडीपी, एफडीआई  और अनेकों सदन में लंबित पड़े बिलों को भुलाने के लिए एक हथियार के रूप में है। आप पार्टी को जिम्मेदारी में डालकर कांग्रेस लोकसभा चुनाव में आगे निकलने की मंशा में है। लेकिन यह कांग्रेसी मंशा और राहुल गांधी की छवि को पीएम पद के लिए कितना निखार पाती है ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा। आम आदमी पार्टी की लोगों की बीच जो विश्वास बना है, पार्टी निखरी है उससे एक बात तो तय है कि बदलाब तेजी से नहीं धीरे से आंएगे लेकिन जरूर आंएगे। पीएम पद के लिए दस सालों से भाजपा जो उम्मीदवार दे रही है, क्या वह प्रधानमंत्री बन पाएंगे ? क्या कांग्रेस से ही जनता फिर प्रधानमंत्री चुनेगी ?  या आम आदमी की फिर से जीत होगी, सवाल एक ही है लोकसभा चुनाव 2014।
 - सुरेंद्र कुमार अधाना, नूर नगर मेरठ

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Friday 3 January 2014

ग्रामीण मनोरंजन का आधार है रेडियो


गुल्येल्मो मार्कोनी ही थे, जिन्हें शायद इस बात पर विश्वास था कि जब दूर दराज स्थानों पर शाम को अंधेरा परसने के बाद दीए/लैम्प की मंद रौशनी में धीर-धीरे प्रकाशवान होती शाम को लोग जब तन्हा और अकेला महसूस करेंगे या मनोरंजन के रूप में किसी साधन को सोचेंगे तो ऐसे में रेडियो उनकी जरूरतों को पूरा करने में सहायक होगा। रेडियो का यह अविष्कार संयोग नहीं था इस चीज़ की जरूरत महसूस की जा रही थी। जिसके द्वारा एक जगह से दूसरी जगह संवाद स्थापित किया जा सके। मनोरंजन करने का यह सबसे सस्ता, सुलभ, तेज और सबसे अधिक लोगों के बीच आज भी लोकप्रिय है। मनोरंजन के इस पहलू को छूने में रेडियो को थोड़ा वक्त लगा, लेकिन एक सशक्त मनोरंजन के साधन के रूप में गांव की संकरी गलियों तक या देहात में वनों के अंदर बनी झोपड़ी तक रेडियो की घुसपैठ ने यह पूर्णत: सिद्ध कर ही दिया, कि चाहे शहरी परिवेश हो या ग्रामीण हम मनोरंजित हुए बिना नहीं रह सकते।
ग्रामीण परिवेश में परिवर्तन की बयार चल रही है। लोग खुद को किसी भी माध्यम से जोड़कर मनोरंजन करना चाहते हैं। ऐसे में यदि उन लोगों को कोई ऐसा यंत्र मिल जाए कि आप कभी भी-कही भी खुद को मनोरंजन से जोड़ सकते है तो ऐसे में रेडियो की मांग और बढ़ जाती है। यदि गांव में किसी यंत्र की मांग पर गौर किया जाए तो सस्ता और मोबाइल माध्यम के तौर पर रेडियो को लोग ज्यादा पसंद करते हैं। मनोरंजन के अन्य साधन भी गांव में आप सुलभ हैं, लेकिन रेडियो की उपयोगित और महत्व अलग होने के कारण इसकी जरूर ग्रामीण परिवेश में बढ़ी है। खास कर अप्रैल-मई में जब गेहूं की कटाई चल रही होती है, ऐसे में किसान पूरे-पूरे दिन कटाई करते है ऐसे में किसान या किसान महिलाएं कटाई करते समय या दोपहर कुछ आराम करने के लिए किसी पेड़ की छांव का सहारा लेकर आराम करते हुए मनोरंजन करने के लिए रेडियो का इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकते। रेडियो या यू कहे कि आकाशवाणी की सेवाएं बहुजन हिताए, बहुजन सुखाय जैसी परिकल्पना पर आधारित है जिसमें सभी उर्म्र वर्ग को ध्यान में रखकर कार्यक्रम प्रसारित किए जाते है। जिनमें क्षेत्रिय कार्यक्रम, बच्चों के लिए ज्ञान-विज्ञान की बाते, गज़ल, रागनी, ढोला, बुलेटिन, महत्वपूर्ण जानकारी, भक्ति संगीत, योजनाएं पर चर्चा-परिचर्चा, साक्षात्कार व पब्लिक सेक्टर एनाउंसमेंट इत्यादि कुछ ऐसे कार्यक्रम है जो बच्चे, नौजवान, वृद्ध सभी के लिए विशेष समय या कुछ समय अंतराल पर कार्यक्रम प्रसारित किए जाते है। यदि किसी गांव में सैर करने का आप को सौभाग्य प्राप्त हो तो किसी घेर में पेड़ के नीचे पड़ी खाट पर किसी वृद्ध को, बरामदे में पड़े तकत पर किसी नौजवान को, गांव में छोटी-छोटी किराना की दुकान में, झुंड में बीड़ी पीते लोगों को, नाई की दुकान में, गांव के बीच बने चौतरे पर ताश खेलते लोगों को रेडियो सुनते हुए बड़ी आसानी से देखा जा सकता है। रात के समय स्कूल, कॉलेज में पढ़ने वाले नौजवान अपनी पढ़ाई पूरी करने मनोरंजन करने की सोचते हो या जब शाम में खाना खाने या खाना बनाने वाली स्त्रियां मनोरंजन करना चाहती हों ! ताऊ-बाबा-चाचा जब किसी अपने विशेष कार्यक्रम को सुनना चाहते हों ! तो ऐसे में छोटे से लेकर बड़ो-बड़ो के हाथ रेडियो के उस बटन तक पहुंच जाते है जहां तकनीकि का इस्तेमाल कर रेडियो तरंगों को ध्वनि तरंग में परिणत कर आनंद लिया जाता है। इस बेतार वाले इंफोटेन्मेंट के साधन ब्लाइंड मीडिया को भारत में 1927 में रेडियो क्लब द्वारा लाया गया। 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लाइसेंस रद्द हो जाने के बाद आज तमाम मनोरंजन के साधनों के बीच संकट के दौर से गुजरते हुए आज लगभग सात दशक बाद रेडियो 98%  लोगों के बीच मौजूद है।   
आज हर जेब में रेडियो है! घंटो मोबाइल चार्जिंग पर लगे रहने के बाद फिर एक लीड मोबाइल में लगाकर रेडियों के विभन्न ध्वनियों को इस छोटे से यंत्र में आमंत्रित कर खुद को मनोरंजित करते हुए हर्षित, प्रफुल्लित व नवीन उर्जा के श्रोता कच्ची गलियों के गलियारे में घूमते हुए गांव से मुम्बइयां गाने से लेकर देहाती लोक गीतों की सैर कर कर आतें हैं। जो भारत जैसे ग्रामीण प्रधान देश के लिए अति महत्वपूर्ण और सहायक है।
सुरेद्र कुमार अधाना
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अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष - 2023

भारत गावों का, किसान का देश है। भारत जब आज़ाद हुआ तो वह खण्ड-2 था, बहुत सी रियासतें, रजवाड़े देश के अलग-अलग भू-खण्डों पर अपना वर्चस्व जमाएं ...