Tuesday 30 December 2014

ग्रामीण मनोरंजन का आधार है रेडियो

गुल्येल्मो मार्कोनी ही थे, जिन्हें शायद इस बात पर विश्वास था कि जब दूर दराज स्थानों पर शाम को अंधेरा परसने के बाद दीए/लैम्प की मंद रौशनी में धीर-धीरे प्रकाशवान होती शाम को लोग जब तन्हा और अकेला महसूस करेंगे या मनोरंजन के रूप में किसी साधन को सोचेंगे तो ऐसे में रेडियो उनकी जरूरतों को पूरा करने में सहायक होगा। रेडियो का यह अविष्कार संयोग नहीं था इस चीज़ की जरूरत महसूस की जा रही थी। जिसके द्वारा एक जगह से दूसरी जगह संवाद स्थापित किया जा सके। मनोरंजन करने का यह सबसे सस्ता, सुलभ, तेज और सबसे अधिक लोगों के बीच आज भी लोकप्रिय है। मनोरंजन के इस पहलू को छूने में रेडियो को थोड़ा वक्त लगा, लेकिन एक सशक्त मनोरंजन के साधन के रूप में गांव की संकरी गलियों तक या देहात में वनों के अंदर बनी झोपड़ी तक रेडियो की घुसपैठ ने यह पूर्णत: सिद्ध कर ही दिया, कि चाहे शहरी परिवेश हो या ग्रामीण हम मनोरंजित हुए बिना नहीं रह सकते।
ग्रामीण परिवेश में परिवर्तन की बयार चल रही है। लोग खुद को किसी भी माध्यम से जोड़कर मनोरंजन करना चाहते हैं। ऐसे में यदि उन लोगों को कोई ऐसा यंत्र मिल जाए कि आप कभी भी-कही भी खुद को मनोरंजन से जोड़ सकते है तो ऐसे में रेडियो की मांग और बढ़ जाती है। यदि गांव में किसी यंत्र की मांग पर गौर किया जाए तो सस्ता और मोबाइल माध्यम के तौर पर रेडियो को लोग ज्यादा पसंद करते हैं। मनोरंजन के अन्य साधन भी गांव में आप सुलभ हैं, लेकिन रेडियो की उपयोगित और महत्व अलग होने के कारण इसकी जरूर ग्रामीण परिवेश में बढ़ी है। खास कर अप्रैल-मई में जब गेहूं की कटाई चल रही होती है, ऐसे में किसान पूरे-पूरे दिन कटाई करते है ऐसे में किसान या किसान महिलाएं कटाई करते समय या दोपहर कुछ आराम करने के लिए किसी पेड़ की छांव का सहारा लेकर आराम करते हुए मनोरंजन करने के लिए रेडियो का इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकते। रेडियो या यू कहे कि आकाशवाणी की सेवाएं बहुजन हिताए, बहुजन सुखाय जैसी परिकल्पना पर आधारित है जिसमें सभी उर्म्र वर्ग को ध्यान में रखकर कार्यक्रम प्रसारित किए जाते है। जिनमें क्षेत्रिय कार्यक्रम, बच्चों के लिए ज्ञान-विज्ञान की बाते, गज़ल, रागनी, ढोला, बुलेटिन, महत्वपूर्ण जानकारी, भक्ति संगीत, योजनाएं पर चर्चा-परिचर्चा, साक्षात्कार व पब्लिक सेक्टर एनाउंसमेंट इत्यादि कुछ ऐसे कार्यक्रम है जो बच्चे, नौजवान, वृद्ध सभी के लिए विशेष समय या कुछ समय अंतराल पर कार्यक्रम प्रसारित किए जाते है। यदि किसी गांव में सैर करने का आप को सौभाग्य प्राप्त हो तो किसी घेर में पेड़ के नीचे पड़ी खाट पर किसी वृद्ध को, बरामदे में पड़े तकत पर किसी नौजवान को, गांव में छोटी-छोटी किराना की दुकान में, झुंड में बीड़ी पीते लोगों को, नाई की दुकान में, गांव के बीच बने चौतरे पर ताश खेलते लोगों को रेडियो सुनते हुए बड़ी आसानी से देखा जा सकता है। रात के समय स्कूल, कॉलेज में पढ़ने वाले नौजवान अपनी पढ़ाई पूरी करने मनोरंजन करने की सोचते हो या जब शाम में खाना खाने या खाना बनाने वाली स्त्रियां मनोरंजन करना चाहती हों ! ताऊ-बाबा-चाचा जब किसी अपने विशेष कार्यक्रम को सुनना चाहते हों ! तो ऐसे में छोटे से लेकर बड़ो-बड़ो के हाथ रेडियो के उस बटन तक पहुंच जाते है जहां तकनीकि का इस्तेमाल कर रेडियो तरंगों को ध्वनि तरंग में परिणत कर आनंद लिया जाता है। इस बेतार वाले इंफोटेन्मेंट के साधन ब्लाइंड मीडिया को भारत में 1927 में रेडियो क्लब द्वारा लाया गया। 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लाइसेंस रद्द हो जाने के बाद आज तमाम मनोरंजन के साधनों के बीच संकट के दौर से गुजरते हुए आज लगभग सात दशक बाद रेडियो 98%  लोगों के बीच मौजूद है।   
आज हर जेब में रेडियो है! घंटो मोबाइल चार्जिंग पर लगे रहने के बाद फिर एक लीड मोबाइल में लगाकर रेडियों के विभन्न ध्वनियों को इस छोटे से यंत्र में आमंत्रित कर खुद को मनोरंजित करते हुए हर्षित, प्रफुल्लित व नवीन उर्जा के श्रोता कच्ची गलियों के गलियारे में घूमते हुए गांव से मुम्बइयां गाने से लेकर देहाती लोक गीतों की सैर कर कर आतें हैं। जो भारत जैसे ग्रामीण प्रधान देश के लिए अति महत्वपूर्ण और सहायक है।

सुरेद्र कुमार अधाना

1 comment:

Praveen Singh said...

रेडियो आज भी प्रासंगिक है, आज भी यह गाँवों और दूर दराज के इलाकों में सस्ता और सुगम माध्यम है . आपने बहुत खूबसूरती से रेडियो और ग्रामीण परिवेश के बीच के संबंधों को रेखांकित किया . पढ़ कर अच्छा लगा और गाँव के दिन याद आ गए

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