Monday 3 December 2012

तरुणाई के सपने...


प्रसिद्ध कवि पॉश ने कहा था कि सबसे बुरा होता है सपनों का मर जाना। प्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी  कहती हैं- सपने देखना मौलिक अधिकार होना चाहिए। सपने जीवित रहने चाहिए । सपनों की सांसो में ऊर्जा, शक्ति, स्फूर्ति का संचार होते रहना चाहिए। सपनों को महनत की जरूरत होती है। कुछ सपने बिना मेहनत के भी इंजॉय किए जाते है। लेकिन सपनों को बिना महनत इंजॉय करना भी सभी के बस की बात नहीं। इन पर किसी का ज़ोर नहीं, ये कब आते है कब जाते है किसी को कानों कान ख़बर नहीं देते।
खोजी पत्रकारिता भी इन्हें छूने की जुगत तक नहीं कर पाती है। सपना देखना पर भी कॉपी राइट होना चाहिए ताकि कोई किसी का सपना न चुरा सके। सपने देखना मौलिक अधिकार होना चाहिए ताकि सभी को सपने देखने का समान अवसर मिल सके। डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने सपनों के संदर्भ में कहा है कि सपने वह नहीं जो सोते वक्त देखे जाए, सपने तो वह है जो सोने ना दे। हम भी इन्हीं सपनों की बात कर रहे है। समाज में हर वर्ग का, व्यक्ति विशेष का अपना सपना होता है। जिसे वह पाना चाहता है। जीना चाहता है। इंजॉय करना चाहता है। लेकिन सपनों की दुनिया से दूर होता युवा अपने को वर्तमान समय में अलग- थलग पा रहा है। जीवन की गुत्थी जटिल होती सी दिखाई दे रही है।
वर्तमान परिपेक्ष्य में सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि युवा सपने ज्यादा देखता है, उन पर अमल नहीं करना चाहता, सपनों को साकार तो करना चाहता है लेकिन परिश्रम नहीं करना चाहता। सपनों में वह खुद महरूम होना चाहता है, मेहनत किराए पर या किस्तों पर करना चाहता है। युवा सपने साकार करने में नाकाम हो रहा है। क्यूं हो रहा है यह बड़ा सवाल है ? हर बार महनत करने के लिए एक शुभ मुहुर्त की आवश्यकता महसूस करता युवा मंजिल/ सपनो की दुनिया से कैसे दूर हो जाता स्वयं वह खुद भी नहीं जानता है।
अब सपने देखने की सुविधाएं बढ़ गई है। सपने हाई-टेक हो गए हैं। धरातल से युवाओं का संबंध कोसो दूर है। जिसकी हकीकत बनने और बनाने के लिए एक लम्बी प्लानिंग की जरूरत महसूस की जाने लगी है। संकल्प शक्ति की जरूरत होती है। समय प्रतिस्पर्धी है। शॉट-कट के इस जमाने में प्लानिंग भी मोबाइल, लेपटॉप और आइपॉड पर अपडेट हो रही है। जैसे आज गणित की गुत्थियों को हल कर युवाओं ने मोबाइल को जेब में रख लिया है। कुछ युवा सुविधाओं का लाभ पा हजारों-लाखों प्रतियोगियों को दिन-प्रतिदिन पीछे छोड़ते हुए बहुत दूर निकल गए है। उनकी उम्मीदें, इच्छाएं भी असीमित है। जो न तो इंग्ति की जा सकती है और न ही व्यक्त।
आज सुविधाएं मुट्ठी में है। ऐसे में युवाओं को सुविधाओं से दूर कैसे रखा जा सकता है। लोगों की मुट्ठी में दुनिया को देने का सपना उद्योग बन चुका है। यह वैश्विक कारोबार बन चुका है। सपनों का विकेंद्रीकरण हो चुका है। आज सब कुछ सबका है। युवा विचार, युवा सपने नारा बन चुके है। एक दूसरे से आगो निकलने की होड में रोजाना कुछ नया घटित हो रहा है। घटनाएं तकनीक बन चुकी है। और तकनीक घटनाओं में रूपांतरित हो रही है। पूंजीवाद के इस दौर में सब अपने-अपने जुगत में लगे है लोगों की जिंदगी को इंजॉय करने के हजारों विकल्प बाजार सुझा रहा है। लोगों को इंजॉय कराने के लिए बिग टीवी, टाटा स्काई लाईफ को झिंगालाला बनाने में लगे हैं। जो युवा इस बाजारीकरण का हिस्सा है। उनके सपने सजोने और बुनने में यह भी कही हद तक सहयोग देने में सफल साबित हो रहे हैं।
तेजी से बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था में युवाशक्ति का बड़ा योगदान है जो कि किसी भी देश की सबसे बड़ी सम्पत्ति मानी जाती है। भारत में युवाओं का प्रतिशत भारतीय जनसंख्या में सबसे ज्यादा है। कहा जाता है कि किसी भी देश की तस्वीर बदलने में युवाओं का अहम योगदान होता है। वरन भारत में भी यह स्थिति अपने चरम पर है जहां युवा अपने मनोबल से दुनिया जीतने के जुगत में हैं।
प्रतिभा दिखाने के हजारों मंच युवाओं का इंतजार कर रहे हैं। हजारों युवा अपने नाम की डंका बजा मां-बाप की तपस्या का उदाहरण बन रहे हैं। करियर, उम्मीदें, सपने और शिखर युवाओं के लिए अहम हैं। अनेकों ऐसे युवा हैं जो करियर के शिखर पर पहुंच कर भी समाज, देश, सरोकार और मानवता के लिए करियर को स्थगित कर रहे है। ऐसे भी है जो सफलता चाहे वह किसी भी कीमत पर हो उसे ही सबकुछ समझते है, मानते है। करियर ही समाज है, राष्ट्र है। नैतिकता और मूल्य पलायन है
सब कुछ के बावजूद कही ना कही से कुछ छूटा नजर आ रहा है। लगता है कुछ स्थगित हो गया है। युवाओं की एक बड़ी जनसंख्या को वह मार्ग नहीं मिल रहा है जिससे जीवन और संघर्ष को सार्थकता मिल सके। जिन्हें आज की ख़बर नहीं कल का पता नहीं, आर्थिक मंदी से जूझता युवा गलत रास्तों का आश्रय लेना क्यूं चाहता है।
यदि किसी युवा से पूछा जाए कि आप किसे अपना आदर्श मानते हैं तो ज्यादातर युवा खिस्यानी बिल्ली की तरह खम्भा नोचते हुए नजर आएंगे। लगता है हमारे सामने ऐसा कोई नायक नहीं है जो उन अधूरे, बिन देखे सपनों को तराश सके ।       इस वैश्विक दुनिया में पास-पास होते हुए हम दूर होते जा रहे है। ग्लोबल गांव के वाशिंदें हम सभी संवादहीनता से जूझ रहे है। मीडिया माध्यमों, फेसबुक, ट्वीटर, लिंकइन, गूगल प्लस सभी तो हैं लेकिन क्या है कि हम नायकविहीन से हो गए है। हमारी संवेदनाओं का चीर-हरण हो रहा है। भावनाएं सिमट रही हैं। ज्ञान- विज्ञान और सूचना संसार की तकनीकों से लैस हम सभी सिमटे हुए लगते हैं। कहा तो यह जा रहा है कि मानवीय सभ्यता का यह एक उत्कर्ष काल है। जिसमें सुविधाओं का अंबार है।
अब जब कि समाजवादी सपने परिसरों में जिंदा शब्द की तरह मौजूद है। कार्लमार्क्स, लेनिन, गांधी, अंबेडकर, लोहिया और उन तमाम मानवीय सपनों को  शब्द भर बना दिया गया है। पूंजीवाद ने मानो इस वैश्विक दुनिया में उन मूल्यों को भी अपना बना लिया है, अपना लिया है जो उसके लिए मुनाफे बन सकते हैं। पूंजीवाद ने वेश बदलकर, विचार धाराओं का चहरा बदल कर वैचारिक आकाश को छाज दिया है। युवा की आंखों में बड़े-बड़े सपने हैं। बड़ी उम्मीदे है और इन उम्मीदों को पूरा करने की ओर बढ़ते छोटे-छोटे कदम कब काल कोठरी तक जा पहुंचते हैं, यह उन्हें खुद भी पता नहीं चलता। युवा रुमानियत की दौड़ में अंधे हुए नंगे पैर ऊचाइयों को छूने की चाह में सरपट दौड़ रहा है। जिनकी न कोई मंजिल है न कोई ठिकाना। आज आधी आबादी से ज्यादा युवा दिशाहीन हैं। उन्होंने न तो मार्गदर्शन देने वाला है और न कोई मंजिल की राह में रोशनी दिखाने वाला। इस दुर्दशा के बड़ी हकदार अशिक्षा है।
जीवन को सुंदर, सार्थक और सुचिंतित बनाने के लिए जिन लोगों ने सपने देखे हैं उन सपनों को उड़ान देने की जरूरत है। लेकिन सपनों की उड़ान जगह एक लक्ष्यहीन लक्ष्य हमारे सामने है। हिंसक परिदृश्य में युवाओं को रास्ते की तलाश है। रोज ऐसे सैकड़ों उदाहरण लिए जा सकते है जहां लूट-पाट, डकैती, चोरी, दंगा-फसाद घटित हो रहे है कही ना कही हर क्षण हर रोज ऐसे में युवा क्या करे ?
                                          -सुरेंद्र कुमार अधाना

Wednesday 15 August 2012

स्वतंत्रता के बदलते मायने...


स्वतंत्रता के बदल गए मायने... अब भी लोग स्वंय को आजाद महसूस नहीं करतें। इसके पीछे सब की ब्यथा भिन्न-भिन्न है। कही किसी को कानून की जकड़ ने गरीबी दे दी। किसी के संविधानिक अधिकारों का गला घौंटा गया। कही किसी सरकारी विभाग में अपने हक के किसी व्यक्ति ने जीवन का बलिदान दे दिया। क्या ऐसे सक्श के परिजन स्वंय को स्वतंत्र महसूस करेंगे ? यदि करेंगे तो उसके मायने और विचार ओर लोगों से अलग होंगे। भारत की अंतरिक छवि उसके मंत्री, अधिकारी और तमाम सरकारी महकमों में बैठे सैकड़ों उन लोगों द्वारा बनती है जो कि हिंदुस्तान की कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को चलाने के लिए एक मजबूत स्तंभ हैं। यदि किसी गरीब व्यक्ति को अपना बीपीएल कार्ड बनवाने के लिए बेफ्जूल का समय, धन और हाथ-पैर जोड़ने के बाद भी मूंह की खानी पड़ती है तो उसके लिए 15 अगस्त या 26 जनवरी के कोई मायने नहीं होते। भारतीय सरकारी महकमें की वास्तविकता जानते हुए भी आला आधिकारी, मंत्री, नौकरशाही मौन बैठे रहते है। काम यू ही बदस्तूर जारी रहता है। कहा जाता है-पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया ....आडिया बहुत ही उम्दा किस्म का है। मैं यकीनन कह सकता हूं कि ये विचार किसी मंत्री को तो नहीं आया होगा। क्योंकि कुछ लोग देश की जनता को शिक्षित देखना ही नहीं चाहते। यदि अधिकारों की बात की जाए तो एक पढ़ा लिखा व्यक्ति भी देश के गौरव, मान-सम्मान और गरीमा के लिए उतनी शिद्दत से स्वंय को देश भक्त नहीं कहलाना चाहता। क्योंकि कही न कही किसी बात से वह भी आहत होता है। यदि अरविंद केजरीवाल एवं मनीष सिसौदिया जैसे लोग आवाज़ बुलंद करते हैं तो मंत्री और सरकार को उसमें, उनके हित नजर आने लगते है। एक पढ़े लिखे नागरिक आए दिन पासपोर्ट बनवाने के ऑफिस के लिए चक्कर कांटते देखे गए है। जिनमें कुछ लोग तो ऐसे हैं जो सालों से लाईन में इसलिए लगते आ रहे है कि उनके पास पुलिस या पता बेरिफिकेशन करने वाले की जेब गरम करने के लिए रुपया नहीं है। ऐसे में कई सालों तक चक्कर काटने के बाद हताश नागरिक देश पर गर्व किस प्रकार कर सकता है। ये बात वे पढ़े लिखे अधिकारी भी जानते है कि क्यों किसी की फाईल बंद कर दी गई। या पासपोर्ट रद्द कर दिया। लेकिन कोई जहमत उठाने वाला नहीं है। हमारे यहां नागरिकता के मायने कुछ इस तरह है कि आप को जरूरत पासपोर्ट की होगी लेकिन कार्य आप के वोटिंग कार्ड के लिए ज्यादा शिद्दत से कराए जाते है। जिसमें हम आम नागरिक अपना ज्यादा हित खोजते है लेकिन वास्तविक हित तो कुछ ओर ही होता है। अब जनता भी सब जानती है सरकार भी सब जानती है। लेकिन अधिकारों की लड़ाई में आम व्यक्ति बौना पड़ जाता है जीत बाहुबलि की हो जाती है।
                                                               - सुरेंद्र कुमार अधाना

Sunday 5 August 2012

यादें कुछ यू आती है...


यादें कुछ यू आती है...ताजी हवा की तरह आती और चली जाती हैकभी होंठो पर छोटी सी मुस्कान, तो कभी आखों में चमकगालों पर लाली और सासों में शीत अहसास दे जाती है।चांदनी छटा की तरह आप का दृश्य कभी-2 नज़र आता हैसोचता हूं कि कभी यह अपना था.....जो धीरे- धीरे वीरान सा हुआ जाता है।सावन भी भिगो जाता है बार-2 आप के दामन कोजिसको सुखाने की कोशिश में....मेरे यादों का सागर उमड़ आता है।रोकना चाहता हूं मैं इन उठती घटाओं कोहंसता हूं कि पागल मन ऐसा क्यों चाहता है।टीस सी उठती है मन में जब...जब इस दामन में किसी का स्पर्श हो जाता है।फिर दिल को तस्सली देता हूं ...कि ये तो प्रकृति है भला इसे भी क्या रोका जा सकता हैयादों ने तो जड़ कर दिया है, मौसम की रावानगी को भीतो इस बादल पर मेरा वश क्यों नहीं चल पाता है ?
..........© सुरेंद्र कुमार अधाना.........

Thursday 2 August 2012

आज अचानक आप हमें ना जाने क्यू याद आए हैं


यादों के मुकाम में हमने नित नए सपने सजाए हैं...
आज अचानक आप हमें ना जाने क्यू याद आए हैं...
हमने तो दफन कर ली है अपनी संवेदनाएं भी...
बार-बार आंखे क्यूं आप का चहरा दिखाए हैं...
आज अचानक आप हमें ना जाने क्यू याद आए हैं...
हमने तो यादों को सचेत कर दिया था कि...
बीते पलों की याद न दिलाया करें हाल-ए-दिल को...
इस विरह की बेला को क्यों फिर से याद कराए है...
आज अचानक आप हमें ना जाने क्यू याद आए हैं...
पुराने गीतों की तरह सोना सी हो गई हैं अपनी यादें...
जिनकी कीमत समय के साथ-साथ स्वयं बढ़ जाए हैं...
आज अचानक आप हमें ना जाने क्यू याद आए हैं...
खूखे फूलों की पत्ती की तरह हो गई है जिंदगी अपनी...
लेकिन मध्म-मध्म खुशबू फिर भी न जाने कहा से आए है...
आज अचानक आप हमें ना जाने क्यू याद आए हैं...
बड़ी मुश्किल से मन को लगाया था अपने को संभालने में...
लेकिन न जाने क्यूं ये दिल फिर भी आप की ओर खिंचा चला आए है...
आज अचानक आप हमें ना जाने क्यू याद आए हैं...
--------------- © सुरेंद्र कुमार अधाना

दिल करता है मेघ घिर आए

दिल करता है मेघ घिर आए, घनघोर घटाये....नीर बरसाए...
पावक (बारिश) की बूंदे पादप (वृक्ष) पर टपकाए, शोर मचाए..दिल बहलाए...
सरोवर (तालाब) भर आए..जलाशय बन जाए, सरिता में परिणत हो जाए...
सरोज (कमल) खिल आए... वेदना घट जाए और हमारा वासर (दिन) बन जाए...
जलधर संग दामिनी (बिजली) खड़खड़ाए, दिल घबराए धड़कने बढ़ जाए...
सुमन खिल आए...तितली मंडराए....विपिन (वन) में कही खो जाए...
 ----------------- © सुरेंद्र कुमार अधाना


Friday 15 June 2012

भ्रष्टाचार ने आम आदमी को खोखला कर छोड़ दिया..


भ्रष्टाचार ने आम आदमी को खोखला कर छोड़ दिया..
सत्त लेकर चंद लोगों ने धरती का दामन खोस लिया...
अहंकार उनके, अधिकार उनके,उनकी है जीवन लीला...
किसान,मजदूर, रिक्शा, दिहाडी करता फिरता है मतमिला..
इनकी चमक दमक को खा जाने वाले रहने है वातानुकूलित कारों में...
वो फिरते है भटके भटके टुकड़ों के बटवारों में....
छीन ली उनकी खुशिया, बिटायां की माथे की बिंदियां...
कैसे रहेंगे वो लोग खुश जो नहीं चाहते गरीबों के चूहले को...
राम भी देता उनको उनके ही बटवारे को ...
कही न कही आहत तो होती है उनकी भी संवेदनाएं...
कौन किस से बड़ा पता चल जाता है व्यवहारों से...
खुशियां छिपाने, नैन न मिलाते फिरते वो लोग खुशी की तालाश में...
जो छीन रहा दूसरे का टुकड़ा कहा तक बच पाए है ऐसे अधियारे से ..
एक दिन चले जाना है इन महल, भवन, चौबारे से...
किस दुख क्या होता है क्या पहचाना है इन लोगों ने ...
जो नोट की दौतल में रहते है...आंखों से अंधे हुए..
एक दिन आख खुला जानी है आंख बंद हो जाने के बाद ....
काम न कुछ आएगा समय के बीत जाने के बाद..............................©सुरेंद्र कुमार अधाना

Friday 8 June 2012

आज अचानक आप हमें याद आए हैं..

सुरेंद्र कुमार अधाना

यादों के मुकाम में हमने नित नए सपने सजाए हैं..
आज अचानक आप हमें ना जाने क्यू याद आए हैं.. 
हमने तो दफन कर ली है अपनी संवेदनाएं भी...
बार-बार आखे क्यू आप का चहरा दिखाए हैं..
आज अचानक आप हमें ना जाने क्यू याद आए हैं.. 
हमने तो यादों को सचेत कर दिया था कि...
बीते पल की याद न दिलाए हाल-ए-दिल को..
इस विरह की बेला को क्यों फिर से याद दिलाए है...
आज अचानक आप हमें ना जाने क्यू याद आए हैं..
पुराने गीतों की तरह सोना सी हो गई है अपनी यादे..
जिनकी कीमत समय के साथ-साथ स्वयं बढ़ जाए है..
आज अचानक आप हमें ना जाने क्यू याद आए हैं.. 
सूखे फूलों की पत्ती की तरह हो गई है जिंदगी अपनी..
लेकिन मध्म-मध्म खुशबू फिर भी न जाने कहा से आए है...
आज अचानक आप हमें ना जाने क्यू याद आए हैं.. 
बड़ी मुश्किल से मन को लगाया था अपने को संभालने में..
लेकिन न जाने क्यूं ये दिल फिर भी खिंचा जा जाए है...
आज अचानक आप हमें ना जाने क्यू याद आए हैं..
© सुरेंद्र कुमार अधाना

Thursday 17 May 2012

आषाढ़ का एक दिन


 आषाढ़ का एक दिन महाकवि कालिदास के निजी जीवन पर केंद्रित है। जो कि 100 ई.पू  से 500 ईसवी के अनुमानित काल में व्यतीत हुआ। मोहन राकेश को कहानी के बाद सफलता नाट्य-लेखन के क्षेत्र में मिली| हिंदी नाटकों में भारतेंदु और प्रसाद का बाद का दौर मोहन राकेश का दौर है जिसें हिंदी नाटकों को फिर से रंगमंच से जोड़ा। हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेंदु और प्रसाद के बाद यदि लीक से हटकर कोई नाम उभरता है तो वहा मोहन राकेश का है। हालाँकि बीच में और भी कई नाम आते हैं जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की विकास-यात्रा में महत्त्वपूर्ण पड़ाव तय किए हैं। किन्तु मोहन राकेश का लेखन एक दूसरे ध्रुवान्त पर नज़र आता है। इसलिए ही नहीं कि उन्होंने अच्छे नाटक लिखे, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरों से बाहर निकाला और उसे युगों के रोमानी ऐन्द्रजालिक सम्मोहक से उबारकर एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया। वस्तुतः मोहन राकेश के नाटक केवल हिन्दी के नाटक नहीं हैं। वे हिन्दी में लिखे अवश्य गए हैं, किन्तु वे समकालीन भारतीय नाट्य प्रवृत्तियों के उद्योतक हैं। उन्होंने हिन्दी नाटक को पहली बार अखिल भारतीय स्तर ही नहीं प्रदान किया वरन् उसके सदियों के अलग-थलग प्रवाह को विश्व नाटक की एक सामान्य धारा की ओर भी अग्रसर किया। प्रमुख भारतीय निर्देशकों  इब्राहिम अलकाजी, ओम शिवपुरी, अरविंद गौड़, श्यामानंद जालान, राम गोपाल बजाज और दिने न राकेश के नाटकों का निर्देशन कर उनका बहुत ही मनोरहर ढग से मंचन किया।१९७१ में निर्देशक मणि कौल ने इस पर आधारित एक फिल्म बनाई। जिसको साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्मफेयर पुरस्कार दिया गया। मोहन राकेश के नाटक आषाढ़ का एक दिन में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेने पर भी आधुनिक मनुष्य के अंतद्वंद और संशयों की ही गाथा कही गई है। आषाढ़ का एक दिन में सफलता और प्रेम में एक को चुनने के द्वन्द से जूझते कालिदास एक रचनाकार और एक आधुनिक मनुष्य के मन की पहेलियों को सामने रखा है। वहीँ प्रेम में टूटकर भी प्रेम को नहीं टूटने देनेवाली इस नाटक की नायिका के रूप में हिंदी साहित्य को एक अविस्मरनीय पात्र मिला है। राकेश के नाटकों को रंगमंच पर मिली शानदार सफलता इस बात का गवाह बनी कि नाटक और रंगमंच के बीच कोई खाई नही है। अषाढ़ का माह उत्तर भारत में वर्षा ऋतु का आरंभिक महिना होता है, इसलिए शीर्षक का अर्थ "वर्षा ऋतु का एक दिन" भी लिया जा सकता है। इसके अलावा राकेश मोहन के उपन्यास : अंधेरे बंद कमरे, अन्तराल, न आने वाला कल। नाटक : अषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस,  आधे अधूरे और कहानी संग्रह  : क्वार्टर, पहचान, वारिस तथा अन्य कहानियाँ मुख्य हैं। उन्होने निबंध संग्रह  परिवेश के अलावा  मृच्छकटिक, शाकुंतलम का भी अनुवाद किया जो आगे चल कर विश्व विख्यात हुई ।

Friday 11 May 2012

साहित्य- कला- संस्कति का वार्षिक चक्र...


साहित्य अपने से पूर्व के साहित्य के कुछ तत्वों, प्रतिमानों और अवयवों को स्वीकार कर और कुछ को अन्तर्भुक्त करते हुए विकसित होता है। इस प्रकार साहित्य कला संस्कृति के इतिहास के प्रत्येक काल, समय, क्षण कुछ न कुछ निरन्तर जुड़ाव के साथ वृद्धि होती रहती है।
यदि इस वर्ष की परिधि पर साहित्य की गति देखे तो कही गति तेज तो कही बड़े हादसों के बीच कई दिनों तक सिथिलता देखने को मिली। हंस पत्रिका के 25 साल पूरे होने पर लाठी के सहारे चलने वाले राजेंद्र यादव का नामवर सिंह द्वारा उनका दोबारा जन्म कहलाना हंस पत्रिका को नई ऊंचाइयां दिखाने जैसा साबित होता है। साहित्य के केंद्र कहे जाने वाले नामवर सिंह ने हंस पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव की पसंशा करते हुए एवाने गालिब आडिटोरिम के सभागार में हंस पत्रिका की रजत जयंती पर वक्तव्य में कहा कि जो हो सकता है इससे किसी हो नहीं सकता, मगर देखो तो फिर कुछ आदमी से हो नहीं सकता। इस वर्ष में यदि साहित्य के गलियारों से शीर्ष साहित्यकार या बड़े ओहदे वालों की बात की जाए और उसमें सामंत राजेंद्र यादव, अशोक वाजपेयी, नामवर सिहं के अलावा रविंद्र कालियां का नाम न लिया जाए तो यहां पर जातति होगी।
ललित कला अकादमी के अध्यक्ष अशोक वाजपेयी की ताकत सांस्थानिक अधिक रही है। वो सत्ता के केंद्र के रूप में उभरे है। उन्हीं की अकादेमी में 54 वीं अन्तर्राष्ट्रीय कला प्रर्दशनी 3 जून 2011 को वेनिस द्वैवार्षिकी में भारतीय पवेलियन का सुभारम्भ हुआ। इसका सुभारम्भ करते हुए अशोक वाजपेयी ने इस अन्तर्राष्ट्रीय आयोजन में भारतीय उपस्थिति को ऐतिहासिक करार दिया। संस्कृतिक सचिव जवाहर सरकार ने भारतीय प्रतिभागितो को अनुपस्थिति की उपस्थिति बताया और कहा कि जब कला नित नए रूपों के साथ नई-ऩई निर्मितियों में प्रकट हो रही है तो हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम उसे स्थगत करे और उसके सहकार को तैयार रहे। इसके अलावा राष्ट्रीय चित्रकला शिविर वोलगाटी मैदान, कोची में 31 जनवरी से 6 फरवरी तक किया गया। शिविर में स्लाइड प्रर्दशन, वार्ताएं, वाद-विवाद और व्याख्यान आयोजित हुए। शिविर को बड़े स्तर पर आयोजित करने का एक मात्र उद्देश्य भारतीय प्रतीभा को निखारना था।
इस साल दुनिया को अलविदा कहने वाले मकबूल फिदा हुसेन, श्री लाल शुक्ल और इंदिरा गोस्वामी को भारतीय कला, साहित्य और संस्कृति में बड़ी हानि को रूप में देखा गया। चित्रकार हुसेन ने अपनी कला और रंग के माध्यम से कला, रंगमंच और संस्कृति के विभिन्न आयामों को उकेरने का कार्य किया। कविता लिखने के शौकिन हुसेन ने लिखा था....
जब मैं रंग भरने लगू , अपने हाथों में आसमां थाम लो।
क्योंकि मेरे कैनवस के वितान का मुझे भी पता नहीं।।
भारत सरकार के पदश्री, पदमभूषण तथा पद्मविभूषण अलंकारणों से अलंकृत हुसेन को बनारस हिंदु विवि, जामिया मिलिया इस्लामिया और मैसूर विवि की ओर से डॉक्टरेट की मानक उपाधि प्रदान की गई। जिनका 95 वर्ष की उम्र में 9 जून 2011 की सुबह लंदन के एक अस्पताल में निधन हो गया।
ज्ञानपीठ पुरस्कार और पद्म भूषण से सम्मानित तथा राग दरबारी जैसा कालजयी व्यंग्य उपन्यास लिखने वाले मशहूर व्यंग्यकरा श्रीलाल शुक्ल का इस साल हुआ निधन साहित्य जगत में बड़ी हानि है। स्व. हरिशंकर परसाई के बाद वह हिंदी के बड़े व्यंग्यकार थे। एक लेखक के रूप में उन्होंने ब्रिटेन, जर्मनी, पोलैंड, सूरीनाम, चीन, युगोस्लाविया जैसे देशों की भी यात्रा कर भारत भारत का प्रतिनिधित्व किया था। शुक्ल का पहला उपन्यास 1957 में सूनी घाटी का सूरज छपा था और उनका पहला व्यंग्य संग्रह अंगद का पांव 1958 में छपा। शुक्ल ने आजादी के बाद भारतीय समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, पाखंड, अंतरविरोध और विसंगतियों पर गहरा प्रहार किया था। वह समाज के वंछितों और हाशिए के लोगों को न्याय दिलाने के पक्षदर थे।
गुवाहाटी में जमीदार परिवार में जन्मी इंदिरा गोस्वामी असमिया ही नहीं यकीनन, सम्पूर्ण भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थी। इंदिरा जी एक लेखिका होने के साथ-साथ एक शांति दूत भी थी। वो नहीं चाहती थी कि भटक रहे उल्फा में शरीक हुए नौजवान मारे जाए। इंदिरा को याद करते हुए प्रसिद्ध लेखन और साहित्य अकादमी के पूर्व सचिव के. सच्चिदानंदन ने कहा कि उनके लिखे गए उपन्यास, रचनाएं, स्त्रियों के बारे में उनकी वेदनाएं बहुत ही प्रभावी थी। लोग उनको सुनना, पढ़ना पसंद करते हैं वो प्रगतिवादी विचारधारा की थी। एक लेखिका के रूप में वो हमेशा जनता के साथ जुड़ी रही।
इसके अलावा उत्तर प्रदेश के राज्य कर्मचारियों को साहित्यक सेवाओं के लिए पं महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार उप्र प्रशासन एवं प्रबंध अकादमी के अपर निदेशक हेंमत कुमार और सुमित्रा नंदन पंत पुरस्कार उप्र पुलिस भर्ती एवं प्रोन्नति बोर्ड के अपर पुलिस अधीक्षक अखिलेश निगम अखिल को 12 फरवरी 2012 को दिया जाएगा। 

Monday 26 March 2012

नीम का पेड़.....पहला पड़ाव


                हम हमेशा पाने की जद्दोजहद में लगे रहते है...कुछ पाना और फिर उसमें से कुछ खो देना सतत चलता रहता  है। कभी हताश होते है तो कभी कुछ करने की ठान लेकर पूरी  ऊर्जा के साथ काम में जुट जाते है...मगर कुछ कर दिखाने की ये ऊर्जा कहा से आती है ? यह थकान कौन मिटाता है ? पेड़ को भी क्या कोई छांव देता है ? कुछ ऐसे सी प्रश्नों को मैं अकसर नीम के पेड़ के नीचे बैठ कर सोचा करता हूं। मेरे ब्लाग का नाम नीम का पेड़ होने इसी का अंग है....जब ब्लाग बना रहा था तो कोई अच्छा सा नाम सूझ ही नहीं रहा था। खिड़की से हटे परदे की छोटी से झांकी (छोटा सा स्थान या छेद )पर नजर गई तो घर के आंगन में लगे नीम के हरे भरे पत्ते हिलते दिखाई दिए। एक दम से दिमाक में आडिया आया कि मेरा ब्लाग का नाम मेरा पेड़ या नीम का पेड़ होगा । जो मेरे मन को सदैव हरा-भरा रखता है। मुझे आप को बताते हुए खुशी हो रही है। कि मैंने अपने आंगन में छह नीम के पेड़ लगाए थे ...सभी के सभी पेड़ आज भी मेरा गांव के घर के आंगन की शोभा बढ़ा रहे है वह हमेशा हिलते-खेलते दिखाई देते से मालूम पड़ते है। जब भी गांव जाता उन हरे भरे पेड़ों को देख मन प्रफुल्लित हो उठता....नीम का पेड़ मेरा ब्लाग ही नहीं मेरी ऊपज है जिसे में अपनी भावना के खाद् और पानी से जीवंत रखना चाहता हूं.....
- सुरेंद्र कुमार अधाना..

Friday 23 March 2012

‘छोटे’ किसान ....


शीर्षक पर ज्यादा ध्यान देंगे तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। शीर्षक पढ़कर, आप सोच रहे होंगे कि लेखक बड़े व छोटे किसानों की बात कर रहे होंगें, लेकिन यहां पर छोटे एक ''नाम'' है जो कि एक किसान का बेटा है। यह नाम उसके परिजनों ने प्रेम से रखा है। वह अपने गांव में इसी नाम से जाना जाता है और गांव से बाहर उसकी अलग पहचान है। गांव से बाहर यह छोटे नाम से अमूमन अपने लोगों के बीच ही जाना जाता है। यह किसान बेटा जब भी किसी परिचित, दोस्तों से बात-चीत करता तो वह फर्क से अपना नाम छोटे बताते हुए। अपने घर पर निमंत्रण देना नहीं भूलता। गांव में छोटे नाम से पूरे गांव वासी परिचित हैं। यह नाम उनके लिए नया नहीं है। वह यह भी जानते है कि छोटे कोई किसान नहीं है, बल्कि गांव के बड़े परिवार से तालौकात रखता है। गांवासी छोटे को उसके बड़े परिवार की वजह से नहीं बल्कि उसके शांत, शालीन और मित्र व्यवहार के लिए जानते है।
छोटे किसान नहीं है....यह एक टाइटल है जोकि उसके गुरु जी प्रो. पी.के.पांडेय ने दिया है। छोटे को यदि हम दूसरे पक्ष से देखे तो छोटे इस मायने में किसान भी है क्योकि उसके पिता जी किसान हैं। छोटे अपनी गांव की छोटी गलियों से मेरठ शहर होते हुए, बड़े शहरों की गलियों तक परिचित है। छोटे का छोटे शहरों के बड़े मीडिया चैनलों से गहरा संबंध है। अब वह प्रिंट मीडिया में एक माध्यम है जो जनमानस को समाचार प्रेषित करने का जिम्मा उठाए हुए है। छोटे जब भी अपने गुरुजी से (गुरु जी के नाम का ऊपर जिक्र कर चुका हूं) मिलता तो गुरुजी छोटे से हमेशा पूछते है- ''छोटे अब तो तू किसान बन गया''। यह कोई संकयोग नहीं....यह एक सच्चाई है यह टाइटल गुरु जी की ही देन है। छोटे किसान...
छोटे के परिवार में माता-पिता के अलावा दो बड़े भाई भी हैं। छोटे अपने परिवार में सबसे छोटा और सभी का लाडला है। छोटे के भाई, माता-पिता सब इस पर जा लुटाते हैं। छोटे भी अपने छोटेपन की आड़ में तमाम सुविधाओं का आनंद लेता रहता है जो कि उसके किसान न होने की निशानी है।
इस टाइटल के मिलने के पीछे एक छोटी सी कहानी है... हुआ यू कि प्रो. पी.के.पांडेय जी को बैंकाक में उनके सीनेमा क्षेत्र में किए गए कार्यों पर उनकी कलम से लिखे गए लेखों को सम्मानित किया जाना था। उसी क्रम में पासपोर्ट बनवाने के लिए गुरुजी से बातचीत होती रहती थी। एक बार गुरुजी के पास बैठा हुआ चाय पी रहा था कि अचानक बैंक से फोन पर एक मेसिज आ गया। गुरुजी की उत्सुकता बढ़ी तो गुरुजी पूछ बैठे कि किसना मेसिज है जी....मैने कहा बैंक से.....गुरुजी बैंक से हंसते हुए......जी मेरा बैंक में खाता है जिसमें गन्न की फसल कटने पर कुछ राशि पिता जी के आशीर्वाद से आती रहती है। गुरुजी ने कहा किस बात की राशि आती है.....गन्ने की फसल की ....मैंने कहा (छोटे)...सर हंसते हुए छोटे किसान बन गया जी....
यह गुरु जी की कल्पना है जोकि एक सच्ची बात और वास्तविक क्रिया से भिन्न है। छोटे किसान तो नहीं है लेकिन है भी......गुरुजी की बातों में.......छोटे फावड़े का इस्तेमाल नहीं करता....वह कभी भैंसा बुग्गी दौड़ाता हुआ भी नहीं देखा गया। लेकिन गुरु जी हमेशा अपनी बातों में छोटे को ट्रैक्टर पर बिठा देते है..यादों के मैदान को बतियाते हुए खेत बना देते है....उसे जौत देते है....फसल भी बौ देते है....लेकिन फसल पकने पर गुरु जी से भेट नहीं हो पाती यही कारण है कि हर बार छोटे किसान की फसल यू ही खेत में लहराती रहती है...न तो उसे छोटे किसान कांटता है और न ही कभी गुरु जी उस फसल की कटाई का जिक्र करते हुए उसकी कटाई की बात करते हैं। हमेशा छोटे गुरू जी की बातों में किसान बन कर रहा जाता और गुरु जी उसे किसान बनाएं बिना कभी चैन से बैठ भी नहीं पाते...... 

गुरु जी की स्मृति में।।
© सुरेद्र कुमार अधाना
  

Tuesday 20 March 2012

चुनी हुई पंक्ति.......

दुश्मनी का सफर, एक कदम-दो कदम।
तुम भी थक जाओगे, हम भी थक जाएंगे।।
  

छोटा कद बड़ा व्यक्तित्व....लिलिपुट जी

LILIPUT JI...
सिनेमा जगत के जाने माने हास्यकलाकार और सैकड़ों लोगों के चहरे  की मुस्कान कहे जाने वाले लिलिपुट जी से शनिवार यानि तीन मार्च 2012 की शाम। इंडियन फिल्म एवं टेलीविजन इस्टीट्यूट,मेरठ  में उनसे मुखातिब होने का मौका मिला। तो जाना कि कोई व्यक्ति अपने काम से इतना भी संतुष्ठ हो सकता है। न चहरे पर सिकन न कुछ खोने की चिंता, मस्ता मौला रहना। सभी को गुद-गुदाते देखना शायद उनके व्यक्तित्व में शामिल है।
 लिलिपुट जी एक छोटी कद काठी वाले हास्य किस्म के व्यक्ति है जो सोते, जागते, उठते,  बोलते, चलते, फिरते, लोगों से बतियाते वक्त कब किस बात को पकड़ ले कुछ पता नहीं। हर वक्त हर जगह लोगों के चहरे पर सदैव मुस्कान चाहने वाले एक छोटे कद में बड़े व्यक्तित्व की वें मिशाल हैं। बड़े- छोटो में न कोई फर्क न कोई बड़प्पन की दीवार। न मान सम्मान की इच्छा जब जैसा मन किया उस पल को जी लेने वाले व्यक्ति हैं लिलि जी । उन्हें देख ऐसा लगा कि वें हर पल को जी लेना चाहते है।जीवन के  हर पल,हर लम्हा में रंग भरना चाहते है। फकत एक छोटा का अरसा भी चुप रहना गवारन नहीं समझने वाले हर मॉमेंट को इंजाय करने की उनकी इच्छा लिए हमेशा इधर-उधर डौलने वाले लिलि जी को अपने बीच देख हम आज खुश हैं।
  सफलता का पैरामीटर और मंजिल का रास्ता उन्हें देख स्वयं को छोटा महसूस करने लगता है। कुछ अगल कर लेने की आशा और विश्वास भरी मुस्कान ......सालों से विरान पड़ी जड़ों की तरहा सावन आने पर हरे भरे भीगते हुए मौसम में खुशहाल मस्ती में झूमते हुए विशाल पेड़ की तरहा लगते है।जो कि गर्मी आने पर हजारों पथिक की  निस्वार्थ भाव से छांव दे थकान दूर करता है। ऐसे लोगों को देख हममें आत्मविश्वास कई गुना बढ़ जाता है। जिन्होंने अपनी कमजोरी को इतनी मजबूती से पेंश किया की वह हास्य का विषय न बन होकर एक पहचान बन गए। आप से एक छोटी मुलाकात हमारी बड़ी याद बन गई......
                                                                                                                -    सुरेंद्र कुमार अधाना 

Tuesday 6 March 2012

सामाजिक बदलाव का एक साल.. 2011


समाज का एक बड़ा तबका अपनी जीवनक्रिया, घर-परिवार की जिम्मेदारियों तक सिमट कर रह गया है। न तो उसे बदलाव के प्रयत्न में कोई विशेष रूचि रही है और न ही कोई मंशा लेकिन परिवर्तन की इच्छा हमेशा जहन में सुलगती रही है। किसी एक व्यक्ति की मांग कब समाज की इच्छा या जरूरत बन जाए यह समय और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। फिर भी वर्ष 2011 कुछ कम उतार-चढ़ाव का नहीं वरन् पूरे घात-प्रतिघात तक के किस्सों का साल रहा है।
2005 में सूचना के अधिकार लागू हो जाने पर लोगों ने इसे एक शस्त्र के रूप में समझा, लेकिन धीरे-धीरे इस कानून को तोड़-मरोड़ कर अपने हितों के आगोश में छिपा लिया गया और यह कानून इन दिनों आम लोगों के हितों से दूर ही रहा।
एक दश्क बाद इस वर्ष हुई जनगणना में भारत की जनसंख्या 121 करोड़ और यू पी 21 करोड़ की जनसंख्या का आकड़ा पार कर यूपी जनसंख्य की दृष्टि से अव्वल राज्य रहा। इससे हम जन शक्ति के रूप में तो मजबूत हुए है लेकिन खाद्यान और प्रतिव्यक्ति उपलब्धता पर रोना भी आता है। साथ ही नवम्बर के अंत तक दुनिया के सात अरब के आकड़े पार करने का गौरव भी भारत की भूमि पर अंकुरित हुआ ।
बड़े बदलाव के लिए एक छोटे ओहदे वाले, रालेगण सिद्धी के सुधारक के तौर पर पहचाने जाने वाले अन्ना हजारे, जिन्हें पहले बामुश्किल महाराष्ट्र से बाहर के लोग जानते थे उनका दायरा और प्रभाव सीमित था। इस वर्ष लम्बी छलांग लगा उन्होंने अपने ओहदे को लोकपाल बिल से जोड़ते हुए जन आंदोलन से एक नवीन उर्जा, प्रकाशवान माहौल और एक सापेक्ष स्थिति बया कर लोगों को दिशा देने का कार्य किया है, लेकिन यह कितना सम्भव हो सका है यह एक विचारर्णीय प्रश्न है।
लेखकों, आलोचक और मीडिया कर्मियों ने भी माना है यदि लोकपाल बिल की आवाज अन्ना हजारे ने बुलंद नहीं की होती तो यह ठंडे बस्ते में चला जाता। इतनी ज्यादा तादात, एक बड़ा जन समूह, सम्पूर्ण राष्ट्र का सहयोग और तिहाड़ जेल से बाहर आने पर अन्ना का तेज बारिश में स्टार प्लस के 24 कैमरों से कवरेज कोई छोटी घटना नहीं है। यह जनता के जाग्रत होने की स्थिति को बया करता हुआ जनता के जाग उठने का साल है।
चौ. चरण सिहं विवि के हिंदी विभाग के प्रो. दीनबंधु तिवारी का कहना है कि भारतीय तंत्र और राजनेताओं से आम जन त्रस्त हैं। लोग आज भी दो जून की रोटी के संघर्ष कर रहे है। भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। कुछ लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते ही नहीं तो कुछ लड़ते-लड़ते थक जाते है और हाथ कुछ नहीं लगता। अन्ना की आंधी आने का कारण भी यही रहा अन्ना ने आम लोगों की जुबा बोली जिसमें भ्रष्टाचार से त्रस्त लोगों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और उम्मीद खो बैठे लोगों में एक किरण जगी जिसमें लोगों का एक बड़ा तबका शामिल हो गया और आंदोलन को बुलंद कर रहा है।
अब सब स्पष्ट हो गया है कि सरकार की नीति और भारत का भविष्य आम लोगों की राय में शामिल होते हुए भई जनतंत्र और लोकतंत्र की भावना से परे है फिर भी यह साल समाज की सोच और विचार दोनों के बदलाब का साल कहा जा सकता है।
-           सुरेद्र कुमार अधाना

पहला अपोइंट मेंट लेटर

कुछ समझ में नहीं आता कि कभी इन बातों से खुशी होती है तो कभी जिरो देख कर दुख होता है कि शायद हमारे लेटर पर लिखी। इस श्याही की एक संख्या में एक जीरो और होती। ........
                                                                                    -  सुरेद्र कुमार अधाना

Monday 5 March 2012

पाठकों का लेखक हूं पुरस्कारों का नहीं.........काशीनाथ


साहित्य अकादमी पुरस्कार आप को देरी से दिया जा रहा है। जबकि आप से जुनियर लोगों पहले ही सम्मानित किया जा चुका है ?
ऐसा हुआ करता है और कई बार ऐसा हुआ भी है। जैसे कि मैं बताऊ कि डॉ. नामवर सिंह को पहले ही यह पुरस्कार मिल गया जबकि उनके गुरु हर्षवेदी को दो तीन साल मिला। ऐसा होता रहता है और साहित्य अकादमी भी सुधार करता रहता है जो गलतियां हो गई होती है उन्हे ठीक करती है। दूसरी बात यह है कि ऐसा भी हुआ है कि जिस किताब की मिलना चाहिए पुरस्कार उन किताबों को नहीं मिलता है और ऐसी किताबों को मिलता है जिन्हें नहीं मिलना चाहिए। ऐसा हमारे साथ नहीं हो सका है जैसी काशी काथत्ती है इससे कमतर रेहन पर रग्घू नहीं है। पुरस्कार देने के लिए लेखक को भी ध्यान में रखा जाता है कि वह सेवा कर रहा है, यहा ऐसा नहीं हुआ है। पुरस्करा की घोषणा कर साहित्य अकादमी ने कोई कृपा नहीं की है। किताब को ध्यान में रखा गया है।
उपन्यास लिखने की प्ररेणा कहा से मिली ?
प्ररेणा जैसी चीज़ वो मैं नहीं कहूगा। जब भूमंडलीकरण, उदारीकरण वगेरा के बारे में इम्पेक्ट जब मैं देख रहा था चार खेत मोहल्ले पर”  तो मेरे दिमाक में आया इसका प्रभाव शहर में नहीं बल्कि गांव में भी पड़ा होगा तो गांव में क्या बदलाव आया तो इसी बीच 21 वीं शदी में जो गांव है वह गांव तो नहीं जो मैथिलसर रूह के जमाने में थे। तो भूमण्डलीकरण के बाद बदलते हुए भारतीय गांव में एकल परिवार का विकास हुआ क्योंकि पूंजी के साथ परिवार एकल होते चले। पहले जमीन बहुत महत्वपूर्ण हुआ करती थी, लेकिन मैसूर, मुम्बई, बेग्लोर, में पाठ-पाठन करन वाले लोग वही रच-बस गए है। जमीन की जगह सर्विस ने ले ली है। तो हमें लगा कि लोग गांव को छोड़ शहर में बसना चाहते है। गांव से निकल कालोनियों में बसना चाहते है। भूमण्डलीकरण के कारण गांव भी बदले है। आम लोगों की चाह कि वह गांव में भी घर-बार चाहते है और शहर में भी उसके लिए ठिकाना रहे। ये चीजें रही। जबकि उस आदमी के बेटे की जमीन भी छूटी, बाप ने जिस शहर में मकान लिया वह भी छूटा और नौकरी करन चले गए। इस उपन्यास में रघुनाथ का एक बेटा अमेरिका में है, दूसरा बेटा नोएडा में है और एक रघुनाथ अकेले पड़े हुए है और उस लड़की के साथ रह रहे है, जिसे उनका बेटा छोड़ दूसरी शादी कर चुका है। अब वह ससुर भी नहीं, अब किस प्रकार रह रहे है। कुछ विसंगतियों, जटिलताएं, जो समस्याएं खड़ी हुई है उन पर हमारा ध्यान गया। इसपर भी भूमण्डलीकरण का इम्पेक्ट है, लेकिन काशीकांत का एक मोहल्ला है। यह गांव है और नई बनी कालोनियां है उनके बीच आदमी का अकेलापन, निरंतर आदमी के अकेले होते जाने की प्रकिया इसमें उठाई गई है।
आगामी योजना ?
 अभी तो मेरी एक कहानी तदभव त्रिका में भी आई है और मेरा एक संस्मरण जनवरी को शुक्रवार के साहित्य विशेषांक में आ रहा है।
नए साल पर कुछ विशेष ?
 ऐसा  है कि मेरे दिमाक में कहनियों ढांचा बदलने में लगा हूं। कहानी की जो मोनोटनी है उसे तोड़ना में लगा हूं। इसे तोड़ने के क्रम में अब तक में तीन कहानी लिख चुका हूं दो छोटी कहानी है और एक लम्बी और मेरे दिमाक में है कि जितनी कहानियां हो जाए। उसका  एक नए ढंग से एक कहानी संग्रह हो। नई ढंग महत्वपूर्ण है कहानी संग्रह नहीं। नए ढंग का कहानी संग्रह आएगा अगले वर्ष।
नए साल पर कुछ नया करनी की सोची हो ?
मैं वस्तुत: पाठकों का ही लेखक हूं। पुरस्कारों का नहीं हूं। मैं जो भी लिखता हूं चाहता हूं कि लोग पढ़े वरना हमारा लिखना बेकार हूं। मैं खुद अपने भीतर नया पन खोजता रहता हूं मुझे नया करने की नित तलाश रहती है कि अपने आप को रिपीट नहीं करना है। पाठकों को कुछ नूतन, नवीन देने का निरन्तर प्रयास जारी रहता है।
-    सुरेंद्र कुमार अधाना

अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष - 2023

भारत गावों का, किसान का देश है। भारत जब आज़ाद हुआ तो वह खण्ड-2 था, बहुत सी रियासतें, रजवाड़े देश के अलग-अलग भू-खण्डों पर अपना वर्चस्व जमाएं ...